Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 140] [प्रज्ञापनासूत्र 1868. [1] आभिणिबोहियणाणि-सुतणाणिसु बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिएसु छन्भंगा। अवसेसेसु जीवादीयो तियभंगो जेसि अस्थि / / [1768-1] आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में (पूर्ववत्) छह भंग समझने चाहिए। शेष जीव आदि (समुच्चय जीव और नारक आदि) में जिनमें ज्ञान होता है, उनमें तीन भंग (पाये जाते हैं।) [2] प्रोहिणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिया आहारगा, यो प्रणाहारगा। अवसेसेसु जीवादीयो तियभंगो जेसि अस्थि ओहिणाणं / [1898-2] अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च आहारक होते हैं अनाहारक नहीं / शेष जीव प्रादि में, जिनमें अवधिज्ञान पाया जाता है, उनमें तीन भंग होते हैं। [3] मणपज्जवणाणी जीवा मणूसा य एगत्तेण वि पुहत्तेण विपाहारगा, जो अणाहारगा। [1868-3] मनःपर्यवज्ञानी समुच्चय जीव और मनुष्य एकत्व और बहुत्व को अपेक्षा से आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। [4] केवलगाणो जहा पोसण्णी-णोअसण्णी (सु. 1881-82) / [1868-4] केवलज्ञानी का कथन (सू. 1881-82 में उक्त) नो-संज्ञी-नो-प्रसंज्ञी के कथन के समान जानना चाहिए। 1866. [1] अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1896-1] अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते हैं। [2] विभंगणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य प्राहारगा, णो प्रणाहारगा। अवसेसेसु जीवादीयो तियभंगो / दारं 8 // 1866-2] विभंगज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। अवशिष्ट जीव आदि में तीन भंग पाये जाते हैं / [अष्टम द्वार) विवेचन -- ज्ञानी जीवों में श्राहारक-अनाहारक-प्ररूपणा समुच्चय ज्ञानी (सम्यग्ज्ञानी) में सम्यग्दृष्टि के समान प्ररूपणा जाननी चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय सदैव मिथ्यादृष्टि होने के कारण अज्ञानो ही होते हैं, इसलिए एकेन्द्रियों को छोड़कर एकत्व की अपेक्षा से समुच्चय जीव तथा तक शेष 16 दण्डकों में ज्ञानी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / बहुत्व की विवक्षा से समुच्चयज्ञानी जीव आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी। नारकों से लेकर स्तनितकुमारों तक ज्ञानी जीवों में पूर्वोक्त रीति से तीन भंग होते हैं / पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में भी तीन भंग ही पाए जाते हैं / तीन विकलेन्द्रिय ज्ञानियों में छह भंग प्रसिद्ध हैं। सिद्ध ज्ञानी अनाहारक ही होते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी में एकत्व की अपेक्षा से पूर्ववत् समझना। बहुत्व की अपेक्षा से–तीन विकलेन्द्रियों में छह भंग होते हैं। उनके अतिरिक्त एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य जीवादि पदों में, जिनमें प्राभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान हो, उनमें प्रत्येक में तीन-तीन भंग कहने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org