________________ [प्रज्ञापनासूत्र सप्तम : कषायद्वार 1864. [1] सकसाई णं भंते ! जीवे किं प्राहारए प्रणाहारए ? गोयमा ! सिय माहारए सिय प्रणाहारए। [1894-1 प्र.] भगवन् ! सकषाय जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1894-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् अाहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / [2] एवं जाव बेमाणिए। [1894-2] इसी प्रकार (नारक से लेकर) वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। 1565. [1] पुहत्तेणं जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1865-1] बहुत्व की अपेक्षा से-जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर (सकषाय नारक आदि में) तीन भंग (पाए जाते हैं / ) [2] कोहकसाईसु जीवादिएसु एवं चेव / णवरं देवेसु छन्भंगा। [1865-2] क्रोधकषायी जीव आदि में भी इसी प्रकार तीन भंग कहने चाहिए / विशेष यह है कि देवों में छह भंग कहने चाहिए। [3] माणफसाईसु मायाकसाईसु य देव-णेरइएसु छन्भंगा। अवसेसाणं जीगिदियवज्जो तियभंगो। [1865-3] मानकषायी और मायाकषायी देवों और नारकों में छह भंग पाये जाते हैं / [4] लोभकसाईसु णेरइएसु छम्भंगा। अवसेसेसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। _ [1895-4] लोभकषायी नै रयिकों में छह भंग होते हैं। जीव और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष जीवों में तीन भंग पाये जाते 1866. अकसाई जहा गोसण्णी-णोअसण्णी (सु. 1881-82) / दारं 7 // [1866] प्रकषायी को वक्तव्यता नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी के समान जाननी चाहिए। [सप्तम द्वार विवेचन-सकषाय जीव और चौबीस दण्डकों में माहारक-अनाहारक की प्ररूपणा—एकत्व की विवक्षा से समुच्चय जीव पौर चौबोस दण्डकवर्ती जीव पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर सकषाय नारकादि में पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार तीन भंग पाये जाते हैं / समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग--'बहुत आहारक, बहुत अनाहारक' होता है।' 1. (क) अभि. रा. कोष. भा. 2, पृ. 513 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयवोधिनी टीका भा. 5, पृ. 663 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org