________________ अट्ठाईसवां आहारपद] [137 1862. संजयासंजए जोवे पंचेंदियतिरिक्खजोणिए मणूसे य एते एगत्तेण वि पुहत्तेण वि पाहारगा, जो अणाहारगा। [1862] संयतासंयतजीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से पाहारक होते हैं, अनाहारक नहीं / 1863. गोसंजए-णोप्रसंजए-णोसंजयासंजए जोवे सिद्धे य एते एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णो पाहारगा, अणाहारगा। दारं 6 // [1863] नोसंयत नो-असंयत-नोसंयतासंयत जीव और सिद्ध, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं / [छठा द्वार] विवेचन-संयत-संयतासंयत, असंयत और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत की परिभाषाजो संयम (पंचमहाव्रतादि) को अंगीकार करे अर्थात् विरत हो उसे संयत कहते हैं। जो अणुवती श्रावकत्व अंगीकार करे अर्थात् देशविरत हो, उसे संयतासंयत कहते हैं। जो अविरत हो, न तो साधुत्व को अंगीकार करे और न ही श्रावकत्व को, वह असंयत है और जो न तो संयत है, न संयतासंयत है और न असंयत है, वह नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत कहलाता है। संयत समुच्चय जीव और मनुष्य ही हो सकता है, संयतासंयत समच्चय जीव. मनष्य एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्च हो नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अयोगिकेवलो तथा सिद्ध होते हैं। संयत जीव और मनुष्य एकत्वापेक्षया केवलिसमुद्घात और अयोगित्वावस्था की अपेक्षा अनाहारक और अन्य समय में प्राहारक होता है। बहुत्य की अपेक्षा से तीन भंग-(१) सभी संयत आहारक होते हैं; यह भंग तब घटित होता है जब कोई भी केवलीसमुदघातावस्था में या अयोगी-अवस्था में न हो। (2) बहुत संयत आहा और कोई एक अनाहारक, यह भंग भी तब घटित होता है जब एक केवलीसमुद्घाताव घातावस्था में या शलशा अवस्था में होता है। (3) बहत संयत अाहारक और बहत अनाहारक, यह भंग भी तब घटित होता है जब बहुत-से संयत केवलीसमुद्घातावस्था में हों या शैलेशी-अवस्था में हो / असंयत में एकत्वापेक्षा से-एक आहारक, एक अनाहारक यह एक ही विकल्प होता है / बहुत्व की अपेक्षा से—समुच्चय जीवों और असंयत पृथ्वीकायिकादि प्रत्येक में बहुत प्राहारक और बहुत अनाहारक यही एक भंग होता है। असंयत नारक से वैमानिक तक (समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर) प्रत्येक में पूर्ववत् तीन-तीन भंग होते हैं। संयतासंयत-देश विरतजीव, मनुष्य और पंचेन्द्रियतिर्यञ्च ये तीनों एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं; क्योंकि मनुष्य और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के सिवाय किसी जीव में देशविरति-परिणाम उत्पन्न नहीं होता और संयतासंयत सदैव आहारक ही होते हैं, क्योंकि अन्तरालगति और केवलिसमुद्घात प्रादि अवस्थाओं में देशविरति-परिणाम होता नहीं है / नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव व सिद्ध–एकत्व-बहुत्व-अपेक्षा से अनाहारक ही होते हैं. आहारक नहीं, क्योंकि शैलेशी प्राप्त त्रियोगरहित और सिद्ध अशरीरी होने के कारण पाहारक होते ही नहीं।' 1. अभि. रा. को., भा. 2, पृ. 513 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org