________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [135 [3] सिद्धा अणाहारगा। [1887-3] सिद्ध अनाहारक होते हैं / [4[ अवसेसाणं तियभंगो। [1887-4] शेष सभो (सम्यग्दृष्टि जोवों) में (एकत्व को अपेक्षा से) तोन भंग (पूर्ववत्) होते हैं। 1888. मिच्छट्ठिीसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1888] मिथ्यादृष्टियों में समुच्चय जीव और एकेन्द्रियों को छोड़ कर (प्रत्येक में) तीनतीन भंग पाये जाते हैं। 1886. [1] सम्मामिच्छट्ठिी णं भंते ! कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! आहारए, णो अणाहारए / [1886-1 प्र.] भगवन् ! सम्यमिथ्यादृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक ? {1886-1 उ.] गौतम ! वह अाहारक होता है, अनाहारक नहीं। [2] एवं एगिदिय-विलिदियवज्ज जाव वेमाणिए / [1886-2] एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (का कथन करना चाहिए।) [3] एवं पुहत्तेण वि / दारं 5 // [1889-3] बहुत्व की अपेक्षा से भी इसी प्रकार की वक्तव्यता समझनी चाहिए। [पंचमद्वार] विवेचन-दृष्टि की अपेक्षा से आहारक-अनाहारक-प्ररूपणा--प्रस्तुत में सम्यग्दृष्टि पद का अर्थ-औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक और वेदक तथा क्षायिक सम्यक्त्व वाले समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ सामान्यपद से सम्यग्दृष्टि शब्द प्रयुक्त किया गया है / औपमिक सम्यग्दृष्टि आदि प्रसिद्ध हैं / वेदक सम्यग्दृष्टि वह है, जो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के चरम समय में हो और जिसे अगले ही समय में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होने वाली हो। सम्यग्दृष्टि जीवादि पदों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से क्रमश : एक-एक भंग कहना चाहिए / यथा जीव आदि पदों में एकत्वापेक्षया---कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक, यह एक भंग और बहुत्व की अपेक्षा-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यह एक भंग होता है / इनमें पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों की वक्तव्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनमें सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि दोनों का प्रभाव होता है। विकलेन्द्रिय सम्यग्दष्टियों में पूर्वोक्तवत् छह भंग कहने चाहिए। द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रियों में अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन-सम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टित्व समझना चाहिए। सिद्ध क्षायिक सम्यक्त्वी होते हैं और सदैव अनाहारक होते हैं। शेष अर्थात् नैरयिकों, भवनपतियों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में जो सम्यग्दृष्टि हैं, पूर्वोक्त युक्ति से उनमें तीन भंग पाये जाते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org