________________ 134 प्रिज्ञापनासूत्र कापोतलेश्यी नारक आदि में भी समुच्चय सलेश्य जीवों के समान प्रत्येक में तीन भंग (समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर) कहने चाहिए।' तेजोलेश्यी जीवों में आहारकता-अनाहारकता-एकत्व की अपेक्षा से तेजोलेश्यावान् पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों में प्रत्येक में एक ही भंग (पूर्ववत्) समझना चाहिए। बहत्व की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक तेजोलेश्यावान में छह भंग पाये जाते हैं-(१) सब आहारक, (2) सब अनाहारक, (3) एक आहारक एक अनाहारक, (4) एक आहारक बहुत अनाहारक, (5) वहुत आहारक एक अनाहारक और (6) बहुत अाहारक बहुत अनाहारक / इसके अतिरिक्त समुच्चय जीवों से लेकर वैमानिक पर्यन्त जिन-जिन जीवों में तेजोलेश्या पाई जाती है, उन्हीं में प्रत्येक में पूर्ववत् तीन-तीन भंग कहने चाहिए, शेष में नहीं। अर्थात्-नारकों में, तेजस्कायिकों में, वायुकायिकों में, द्वीन्द्रियों-त्रीन्द्रियों और चतुरिन्द्रियों में तेजोलेश्या-सम्बन्धी वक्तव्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में तेजोलेश्या इस प्रकार है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्मादि देवलोकों के वैमानिक देव तेजोलेश्या वाले होते हैं, वे च्यवन कर पृथ्वीकायिकादि तीनों में उत्पन्न हो सकते हैं, इस दृष्टि से पृथ्वीकायिकादिश्रय में तेजोलेश्या सम्भव है / __ पद्म-शुक्ललेश्यायुक्त जीवों की अपेक्षा आहारक-अनाहारक-विचारणा-पंचेन्द्रियतिर्यंचों, मनुष्यों, वैमानिकदेवों और समुच्चय जीवों में ही पद्म-शुक्ल लेश्याद्वय पाई जाती है, अतएवं इनमें एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् एक ही भंग होता है तथा बहुत्व की अपेक्षा पूर्ववत् तीन भंग होते हैं / लेश्यारहित जीवों में अनाहारकता-समुच्चय जीव, मनुष्य, अयोगिकेवली और सिद्ध लेश्यारहित होते हैं, अतएव ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक ही होते हैं, पाहारक नहीं / 3 पंचम : दृष्टिद्वार 1887. [1] सम्म हिट्ठी णं भंते ! जीवे कि पाहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय प्राहारए सिय प्रणाहारए। [1887-1 प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1887-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित कनाहारक होता है। [2] बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिया छम्भंगा। [1887-2] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (सम्यग्दृष्टियों) में पूर्वोक्त छह भंग होते हैं। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 512 2. (क) प्रज्ञापनाचणि-'जेणं तेसु भवणवइ-बाणमंतर-सोहम्मीसाणया देवा उववज्जति तेणं तेउलेस्सा लन्मइ। (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 512 3. बही. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 512 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org