________________ 132] प्रिजापनासूत्र [3] सिद्धे अणाहारए। [1881-3] सिद्ध जीव अनाहारक होता है / 1882. [1] पुहत्तेणं गोसण्णी-णोअसण्णी जीवा पाहारगा वि अणाहारगा वि। [1882-1] बहुत्व की अपेक्षा से नोसंजी-नोप्रसंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी। [2] मणूसेसु तियभंगो। [1882-2] (बहुत्व की अपेक्षा से नोसंज्ञी-नोग्रसंज्ञी) मनुष्यों में तीन भंग (पाये जाते हैं।) [3] सिद्धा अणाहारगा। दारं 3 // [1882-3] (बहुत-से) सिद्ध अनाहारक होते हैं। [तृतीय द्वार] विवेचन-संज्ञी-असंज्ञी : स्वरूप-जो मन से युक्त हों, वे संज्ञी कहलाते हैं / असंज्ञी अमनस्क होता है / प्रश्न होता है-संज्ञी जीव के भी विग्रहगति में मन नहीं होता, ऐसी स्थिति में अनाहारक कैसे ? इसका समाधान यह है कि विग्रहगति को प्राप्त होने पर भी जो जीव संज्ञी के आयुष्य का वेदन कर रहा है, वह उस समय मन के अभाव में भी संज्ञी ही कहलाता है, जैसे नारक के प्रायुष्य का वेदन करने के पश्चात् विग्रहगतिप्राप्त नरकगामी जीव नारक ही कहलाता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय मनोहीन होने के कारण संज्ञी नहीं होते, इसलिए यहाँ संज्ञीप्रकरण में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंज्ञो की पच्छा नहीं-ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंज्ञीपन का व्यवहार नहीं होता, इसलिए इन दोनों में असंज्ञी का पालापक नहीं कहना चाहिए। नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी जीव में आहारकता-अनाहारकता-ऐसा जीव एकत्व की विवक्षा से कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है, क्योंकि केवलीसमुद्घातावस्था के अभाव में आहारक होता है, शेष अवस्था में अनाहारक होता है / बहुत्व को विवक्षा से इनमें दो भंग पाए जाते हैं। यथा-(१) आहारक भी नोसंजी-नोअसंज्ञी जीव बहुत होते हैं, क्योंकि समुद्घात-अवस्था से रहित केवली बहुत पाये जाते हैं / सिद्ध अनाहारक होते हैं, इसलिए अनाहारक भी बहुत पाये जाते हैं / नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं--(१) जब कोई भी केवलीसमुद्घातावस्था में नहीं होता, तब सभी प्राहारक होते हैं, यह प्रथम भंग, (2) जब बहुत-से मनुष्य समुद्घातावस्था में हों और एक केवलीसमुद्घातगत हो, तब दूसरा भंग, (3) जब बहुत-से केवलीसमुद्घातावस्था को प्राप्त हों, तब तीसरा भंग होता है / / चतुर्थ : लेश्याद्वार 1883. [1] सलेसे णं भंते ! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय पाहारए सिय अणाहारए। 1. (क) अभि. रा. कोष. भा. 2, पृ. 511 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 5, पृ. 642 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org