Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 130] [प्रज्ञापनासूत्र प्रभवसिद्धिक और भवसिद्धिक : लक्षण एवं प्राहारकता-अनाहारकता-अभवसिद्धिक वह हैं, जो मोक्षगमन के योग्य न हों / भवसिद्धिक वे जीव हैं, जो संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त भवों के पश्चात कभी न कभी सिद्धि प्राप्त करेंगे। भवसिद्धिक की भाँति प्रभवसिद्धिक के विषय में भी आहारकत्व-अनाहारकत्व का प्ररूपण किया गया है।' नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक और सिद्ध -नो-भवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक सिद्धजीव ही हो सकता है। क्योंकि सिद्ध मुक्तिपद को प्राप्त कर चुकते हैं, इसीलिए उन्हें भव्य नहीं कहा जा सकता तथा मोक्ष को प्राप्त हो जाने के कारण उन्हें मोक्षगमन के अयोग्य-अभवसिद्धिक (अभव्य) भी नहीं कहा जा सकता / एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से ये अनाहारक ही होते हैं / तृतीय : संज्ञीद्वार . 1876. [1] सण्णी णं भंते ! जीवे किं आहारगे अणाहारगे ? गोयमा ! सिय आहारगे सिय अणाहारगे। [1876-1 प्र.] भगवन् ! संज्ञी जीव आहारक है या अनाहारक ? [1876-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [2] एवं जाव वेमाणिए / णवरं एगिदिय-विलिदिया ण पुच्छिज्जंति / [1876-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। किन्तु एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए / 1877. सपणी णं भंते ! जीवा किं पाहारया अणाहारगा? गोयमा ! जीवाईपो तियभंगो जाव वेमाणिया। . [1877 प्र.] भगवन् ! बहुत-से संज्ञी जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1877 उ.] गौतम ! जीवादि से लेकर यावत् वैमानिक तक (प्रत्येक में) तीन भंग होते हैं। 1878. [1] असण्णी णं भंते ! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय माहारए सिय प्रणाहारए। [1878-1 प्र.] भगवन् ! संज्ञी जीव ग्राहारक होता है या अनाहारक ? [1878-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् पाहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [2] एवं मेरइए जाव वाणमंतरे। [1878-2] इसी प्रकार नारक से लेकर वाणव्यन्तर पर्यन्त कहना चाहिए / [3] जोइसिय-वेमाणिया ण पुच्छिज्जति / [1878-3] ज्योतिष्क और वैमानिक के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए / 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पृ. 510 2. वही, अ. रा. कोष भा. 2, पृ. 510-511 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org