________________ 128] [प्रज्ञापनासूत्र जाती है, किन्तु वह होती है प्रतिनियत जीवों की ही। इस कारण प्राहारकों को बहुत कहा है। सिद्ध सदैव अनाहारक होते हैं, वे सदैव विद्यमान रहते हैं तथा अभव्यजीवों से अनन्तगुणे भी हैं तथा सदैव एक-एक निगोद का प्रतिसमय असंख्यातवाँ भाग विग्रहगतिप्राप्त रहता है / इस अपेक्षा से अनाहारकों की संख्या भी बहुत कही है।' बहुत-से नारकों के तीन भंग : क्यों और कैसे ?--(1) पहला भंग है—नारक कभी-कभी सभी आहारक होते हैं, एक भी नारक अनाहारक नहीं होता। यद्यपि नारकों के उपपात का विरह भी होता है, जो केवल बारह मुहूर्त का होता है; उस काल में पूर्वोत्पन्न एवं विग्रहगति को प्राप्त नारक आहारक हो जाते हैं, तथा कोई नया नारक उत्पन्न नहीं होता। अतएव कोई भी नारक उस समय अनाहारक नहीं होता। (2) दूसरा भंग है-बहुत-से नारक आहारक और कोई एक नारक अनाहारक होता है। इसका कारण यह है कि नरक में कदाचित् एक जीव उत्पन्न होता है, कदाचित् दो, तीन, चार यावत् संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / अतएव जब एक जीव उत्पद्यमान होता है और वह विग्रहगति-प्राप्त होता है, और दूसरे सभी पूर्वोत्पन्न नारक आहारक हो चुकते हैं, उस समय यह दूसरा भंग समझना चाहिए। तीसरा भंग है-बहुत-से नारक आहारक और बहुत र बहत-से अनाहारक। यह भंग उस समय घटित होता है, जब बहत नारक उत्पन्न हो रहे हों और वे विग्रहगति को प्राप्त हों। इन तीन के सिवाय कोई भी भंग नारकों में सम्भव नहीं है। एकेन्द्रिय जीवों में केवल एक भंग : क्यों और कैसे—पृथ्वीकायिकों से लेकर वनस्पतिकायिकों तक में केवल एक ही भंग पाया जाता है / इसका कारण यह है कि पृथ्वीकायिक से लेकर वायुकायिक तक चार स्थावर जीवों में प्रतिसमय असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं इसलिए बहुत-से आहारक होते हैं तथा वनस्पतिकायिक में प्रतिसमय अनन्तजीव विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं / इस कारण उनमें सदैव अनाहारक भी बहुत पाये जाते हैं / इसलिए समस्त एकेन्द्रियों में केवल एक ही भंग पाया जाता है-बहुत-से आहारक और बहुत-से अनाहारक / ' द्वितीय : भव्यद्वार 1871. [1] भवसिद्धिए णं भंते ! जीवे कि प्राहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय पाहारए सिय अणाहारए। [1871-1 प्र.] भगवन् ! भवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1871-1 उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक होता है, कदाचित् अनाहारक होता है / [2] एवं जाव वेमाणिए। [1871-2] इसी प्रकार की वक्तव्यता यावत् वैमानिक तक जाननी चाहिए। 1. प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, पृ. 629 2. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 510 3. अभि. रा. कोष, भा. 2, पृ. 510 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org