Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अट्ठाईसवा आहारपद [129 1872. भवसिद्धिया णं भंते ! जोवा कि पाहारगा प्रणाहारगा? गोयमा ! जीगिदियवज्जो तियभंगो। [1872 प्र.] भगवन् ! (बहुत) भवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1872 उ.] गौतम ! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर (इस विषय में) तीन भंग कहने चाहिए। 1873. प्रभवसिद्धिए वि एवं चेर। [1873] अभवसिद्धिक के विषय में भी इसी प्रकार (भवसिद्धिक के समान) कहना चाहिए / 1874. [1] गोभवसिद्धिए-णोप्रभवसिद्धिए गं भंते ! जीवे किं पाहारए प्रणाहारए ? गोयमा! णो प्राहारए, अणाहारए। [1874-1 प्र.] भगवन् ! नो-भवसिद्धिक-नो-प्रभवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1874-1 उ.] गौतम ! वह आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है। [2] एवं सिद्धे वि। [1874-2] इसी प्रकार सिद्ध जीव के विषय में कहना चाहिए। 1875. [1] णोभवसिद्धिया-णोप्रभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं पाहारगा प्रणाहारगा? गोयमा ! णो प्राहारगा, अणाहारगा। [1875-1 प्र] भगवन् ! (बहुत-से) नो-भवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1875-1 उ.] गौतम ! वे अाहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं / [2] एवं सिद्धा वि / दारं 2 // [1875-2] इसी प्रकार बहुत-से सिद्धों के विषय में समझ लेना शाहिए ! [द्वितीय द्वार] विवेचन--भवसिद्धिक कब प्राहारक, कब अनाहारक ?-भवसिद्धिक अर्थात्-भव्यजीव विग्रहगति आदि अवस्था में अनाहारक होता है और शेष समय में प्राहारक / भवसिद्धिक समुच्चय जीव की तरह भवसिद्धिक भवनपति आदि चारों जाति के देव, मनुष्य, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय प्रादि सभी जीव (सिद्ध को छोड़कर) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होते हैं।' बहुत्वविशिष्ट भवसिद्धिक जीव के तीन भंग : क्यों और कैसे ?–ग्राहारकद्वार के समान समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ शेष नारक ग्रादि बहुत्वविशिष्ट सभी जीवों में उक्त के समान तीन भंग होते हैं। 1. अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 510 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org