Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद [127 1869. [1] रइयाणं पुच्छा। गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा आहारगा 1 अहवा आहारगा य अणाहारगे य 2 अहवा पाहारगा य प्रणाहारगा य 3 / [1869-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत) नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1866-1 उ.] गौतम ! (1) वे सभी आहारक होते हैं, (2) अथवा बहुत आहारक और कोई एक अनाहारक होता है, (3) या बहुत पाहारक और बहुत अनाहारक होते हैं / [2] एवं जाव वेमाणिया / णवरं एगिदिया जहा जीवा / [1870] इसी तरह यावत् वैमानिक-पर्यन्त जानना / विशेष यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का कथन बहुत जीवों के समान समझना चाहिए / 1870. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! णो पाहारगा, अणाहारगा। दारं 1 / [1870 प्र.] (बहुत) सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [1870 उ.] गौतम ! सिद्ध आहारक नहीं होते, वे अनाहारक ही होते हैं / [प्रथम द्वार] विवेचन-जीव स्यात् प्राहारक स्यात अनाहारक : कैसे ? विग्रहगति, केवलि-समुद्घात, शैलेशी अवस्था और सिद्धावस्था की अपेक्षा समुच्चय जीव को अनाहारक और इनके अतिरिक्त अन्य अवस्थाओं को अपेक्षा आहारक समझना चाहिए। कहा भी है 'बिग्गहगइमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य / सिद्धा य प्रणाहारा सेसा पाहारगा जीवा // ' समुच्चय जीव की तरह नैरयिक भी कथंचित् आहारक और कथंचित् अनाहारक होता है / असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक सभी जीव कथंचित् आहारक और कथंचित् अनाहारक होते हैं।' बहुववन की अपेक्षा-कोई जीव आहारक होते हैं, कोई अनाहारक भी होते हैं / सभी नारक ग्राहारक होते हैं, अथवा बहुत नारक आहारक होते हैं, कोई एक अनाहारक होता है, अथवा बहुत-से पाहारक और बहुत-से अनाहारक होते हैं / यही कथन वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए / एकेन्द्रिय जीवों का कथन समुच्चय जीवों के समान समझना। अर्थात् वे बहुत-से अनाहारक और बहुत-से आहारक होते हैं। सिद्ध एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा सदैव अनाहारक होते हैं।' विग्रहगति की अपेक्षा से जीव अनाहारक-विग्रहगति से भिन्न समय में सभी जीव आहारक होते हैं और विग्रहगति कहीं, कभी, किसी जीव की होती है। यद्यपि विग्रहगति सर्वकाल में पाई 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा' को. भा. 2, पृ. 510 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 628 से 630 तक 2. बही, भा. 5, पृ. 628 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org