________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] (125 परिणत हो जाते हैं / (यथा-मन से अमुक वस्तु के भक्षण की इच्छा के) तदनन्तर जिस किसी नाम वाले शीत (ठंडे) पुद्गल, शीतस्वभाव को प्राप्त होकर रहते हैं अथवा उष्ण पुद्गल, उष्णस्वभाव को पाकर रहते हैं। हे गौतम ! इसी प्रकार उन देवों द्वारा मनोभक्षण किये जाने पर, उनका इच्छाप्रधान मन शीघ्र ही सन्तुष्ट-तृप्त हो जाता है। विवेचन-प्रोज-माहारी का अर्थ-उत्पत्तिप्रदेश में आहार के योग्य पुद्गलों का जो समूह होता है, वह 'प्रोज' कहलाता है। मन में उत्पन्न इच्छा से पाहार करने वाले मनोभक्षी कहलाते हैं।' निष्कर्ष-जितने भी औदारिकशरोरी जीव हैं, वे सब तथा नारक प्रोज-अाहारी होते हैं तथा वैक्रियशरीरी जीवों में चारों जाति के देव मनोभक्षी भी होते, तथा प्रोज-आहारी भी होते हैं। मनोभक्षी देवों का स्वरूप इस प्रकार का है कि वे विशेष प्रकार की शक्ति से, मन में शरीर को पुष्टिकर, सुखद, अनुकूल एवं रुचिकर जिन आहार्य-पुद्गलों के आहार की इच्छा करते हैं तदनुरूप पाहार प्राप्त हो जाता है और उसकी प्राप्ति के पश्चात वे परम-संतोष एवं तप्ति का अनुभव करते हैं / नारकों को ऐसा आहार प्राप्त नहीं होता, क्योंकि प्रतिकूल अशुभकर्मों का उदय होने से उनमें वैसी शक्ति नहीं होती। सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथानों का अर्थ-प्रोजाहार शरीर के द्वारा होता है, रोमाहार त्वचा (चमड़ी) द्वारा होता है और प्रक्षेपाहार कवल (कौर) करके किया जाने वाला होता है / / 1 / / सभी अपर्याप्त जीव प्रोज-आहार करते हैं, पर्याप्त जीवों के तो रोमाहार और प्रक्षेपाहार (कवलाहार) की भजना होती है / / 2 / / एकेन्द्रिय जीवों, नारकों और देवों के प्रक्षेपाहार (कवलाहार) नहीं होता, शेष सब संसारी जीवों के कवलाहार होता है / / 3 // एकेन्द्रिय और नारकजीव तथा असुरकुमार आदि का गण रोमाहारी होता है, शेष जीवों का अाहार रोमाहार एवं प्रक्षेपाहार होता है / / 4 // सभी प्रकार के देव प्रोज-पाहारी और मनोभक्षी होते हैं। शेष जीव रोमाहारी और प्रक्षेपाहारी होते // अट्ठाईसवाँ प्राहारपद : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण // 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 612 2. वही, भा. 5, पृ. 613 सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोम-पाहारो। पक्खेवाहारो कावलियो होइ नायब्वो // 171 / / प्रोयाहारा जीवा सव्वे अपज्जत्तगा मुणेयम्वा / पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे होति भइयब्वा / / 172 / / एगिदियदेवागं नेरइयाण च नत्थि पक्खेवो। सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो / / 173 / / लोमाहारा एगिदिया उ नेरइय सुरगणा चेव / सेसाणं आहारो लोमे पक्खेवो चेव / / 4 / / प्रोयाहारा मणभक्खिणो य सम्वे वि सुरगणा होति / सेसा हवंति जीवा लोमे पक्खेवओ चेव // 5 // -सूत्रकृतांग सु. 2, अ. 3 नियुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org