________________ 124] [प्रशापनासून 1861. बेइंदिया जाव मणसा लोमाहारा वि पक्खेवाहारा वि।। [1861] द्वीन्द्रियों से लेकर यावत् मनुष्यों तक लोमाहारी भी हैं, प्रक्षेपाहारी भी हैं। विवेचन–चौबीस दण्डकों में लोमाहारी-प्रक्षेपाहारी-प्ररूपणा--लोमाहारी का अर्थ हैरोमों (रोओं) द्वारा प्रहार ग्रहण करने वाले तथा प्रक्षेपाहारी का अर्थ है--कवलाहारी-ग्रास (कौर) हाथ में लेकर मुख में डालने वाले जीव / चौबीस दण्डकों में नारक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक और एकेन्द्रिय जीव लोमाहारी हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं; क्योंकि नारक और चारों प्रकार के देव वैक्रियशरीरधारी होते हैं, इसलिए तथाविध स्वभाव से ही वे लोमाहारी होते हैं। उनमें कवलाहार का अभाव है / पृथ्वीकायिकादि पांच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के मुख नहीं होता, अतएव उनमें प्रक्षेपाहार का अभाव है। किन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च एवं मनुष्य लोमाहारी भी होते हैं और कत्रलाहारी (प्रक्षेपाहारी) भी। नारकों का लोमाहार भी पर्याप्त नारकों का ही जानना चाहिए, अपर्याप्तकों का नहीं।' ग्यारहवाँ : मनोभक्षीद्वार 1862. णेरइया णं भंते ! किं प्रोयाहारा मणभक्खी ? गोयमर ! प्रोयाहारा, णो मणभक्खी। [1862 प्र. भगवन् ! नैरयिक जीव प्रोज-याहारी होते हैं, अथवा मनोभक्षी ? [1862 उ.] गौतम ! वे प्रोज-अाहारी होते हैं, मनोभक्षी नहीं। 1863. एवं सम्वे ओरालियसरीरा वि / [1863] इसी प्रकार सभी औदारिकशरीरधारी जीव भी प्रोज-आहार वाले होते हैं। 1864. देवा सब्वे जाव वेमाणिया ओयाहारा वि मणभक्खी वि। तत्थ णं जे ते मणभक्खी देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ 'इच्छामो णं मणभक्खं करित्तए' तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव मणामा ते तेसि मणभक्खत्ताए परिणमंति, से जहाणामए सीता पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अइवइत्ताणं चिट्ठति उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अतिवइत्ताणं चिट्ठति / एवामेव तेहि देवेहि मणभक्खणे कते समाणे गोयमा ! से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति / ॥पण्णवणाए भगवतीए पाहारपदे पढमो उद्देसनो समत्तो॥ [1864] असुरकुमारों से यावत् वैमानिकों तक सभी (प्रकार के) देव प्रोज-पाहारी भी होते हैं और मनोभक्षी भी। देवों में जो मनोभक्षी देव होते हैं, उनको इच्छामन (अर्थात्--मन में पाहार करने की इच्छा) उत्पन्न होती है / जैसे कि वे चाहते हैं कि हम मनो--(मन में चिन्तित वस्तु का) भक्षण करें ! तत्पश्चात् उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार की इच्छा किये जाने पर शीघ्र ही जो पुद्गल इष्ट, कान्त (कमनीय), यावत् मनोज्ञ, मनाम होते हैं, वे उनके मनोभक्ष्यरूप में 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा.५, पृ.६०९-६१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org