________________ अहाईसवाँ आहारपद [123 कौन-सा जीव किनके शरीरों का प्राहार करता है?-प्रस्तुत प्रकरण में नैरयिक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीव जिन-जिन जीवों के शरीर का आहार करते हैं, उसकी प्ररूपणा की गई है, दो अपेक्षाओं से-पूर्वभावप्रज्ञापना (अर्थात् अतीतकालीन पर्यायों को प्ररूपणा) की अपेक्षा से और प्रत्युत्पन्न-वर्तमानकालिक भाव की प्ररूपणा की अपेक्षा से / ' प्रश्न के समाधान का आशय-प्रश्न तो मूलपाठ से स्पष्ट है, किन्तु उसके समाधान में जो कहा गया कि नारकादि जीव पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से--एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के शरीरों का ग्राहार करते हैं और वर्तमानभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा नैर यिकादि पंचेन्द्रिय नियम से पंचेन्द्रियशरीरों का, चतुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रियशरीरों का, त्रीन्द्रिय त्रीन्द्रियशरीरों का, द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियशरीरों का और पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय एकेन्द्रियशरीरों का ही आहार करते हैं। अर्थात्-जो प्राणी जितनी इन्द्रियों वाला है, वह उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीरों का आहार करते हैं / इस समाधान का आशय वृत्तिकार लिखते हैं कि पाहार्यमाण पुद्गलों के अतीतभाव (पर्याय) की दष्टि से विचार किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि उनमें से कभी कोई एकेन्द्रिय-शरीर के रूप में परिणत थे, कोई द्वीन्द्रिय-शरीर के रूप में परिणत थे, कोई त्रीन्द्रियशरीर या चतुरिन्द्रिय-शरीर के रूप में और कोई पंचेन्द्रिय-शरीर के रूप में परिणत थे। उस पूर्वभाव का यदि वर्तमान में प्रारोप करके विवक्षा की जाए तो नारकजीव एकेन्द्रिय-शरीरों का तथा द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पचेन्द्रिय-शरीरों का भी प्राहार करते हैं। किन्तु जब ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वर्तमान-भव की विवक्षा की जाती है, तब ऋजुसूत्रनय क्रियमाण को कृत, पाहार्यमाण को आहृत और परिणम्यमान पुदगलों को परिणत स्वीकार करता है; जो स्वशरीर के रूप में परिणत हो रहे हैं / इस प्रकार ऋजुसूत्रनय के मत से स्वशरीर का ही आहार किया जाता है। नारकों, देवों, मनुष्यों और पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों का स्वशरीर पंचेन्द्रिय है। शेष जीवों (एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय) के विषय में भी इसी प्रकार स्थिति के अनुसार कहना चाहिए / दसवाँ : लोमाहारद्वार 1856. रइया णं भंते ! कि लोमाहारा पक्खेवाहारा ? गोयमा ! लोमाहारा, णो पक्खेवाहारा / [1856 प्र.] भगवन् ! नारक जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी हैं ? 1856 उ.] गौतम ! वे लोमाहारी हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं हैं। 1860. एवं एगिदिया सब्वे देवा य भाणियम्वा जाय वेमाणिया। [1860] इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों, सभी देवों, यावत् वैमानिकों तक के विषय में कहना चाहिए। 1. (क) पण्णवणासुत्त भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 399 (ख) प्रजापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, पृ. 605-606 2. वही भा. 5, पृ. 606 से 609 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org