Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 122] [प्रज्ञापनासूत्र नौवाँ : एकेन्द्रियशरीरादिद्वार 1853. रइया णं भंते ! कि एगिदियसरीराइं प्राहारेति जाव पंचेंदियसरीराइं प्राहारैति ? गोयमा ! पुस्वभावपण्णवणं पडुच्च एगिदियसरीराइं पि प्राहारैति जाव पंचेंदियसरीराई पि, पडप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा पंचेंदियसरीराइं आहारति / [1853 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक एकेन्द्रियशरीरों का यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं ? [1853 उ.] गौतम ! पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे एकेन्द्रियशरीरों का भी प्राहार करते हैं, यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का भी तथा वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नियम से वे पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं / 1854. एवं जाव थणियकुमारा। [1854] (असुरकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक इसी प्रकार (समझना चाहिए।) 1855. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुटवभावपण्णवणं पडुच्च एवं चेव, पड़प्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा एगिदियसरीराइं प्राहारेति। [1855 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [1855 उ.] गौतम ! पूर्वभावप्रज्ञापना को अपेक्षा से नारकों के समान वे एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक का आहार करते हैं। वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नियम से वे एकेन्द्रियशरीरों का पाहार करते हैं। 1856. बेइंदिया पुस्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं चेव, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा बेइंदियसरीराइं प्राहारेति / [1856] द्वीन्द्रियजीवों के सम्बन्ध में पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से इसी प्रकार (पूर्ववत् कहना चाहिए।) वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे नियम से द्वीन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं। 1857. एवं जाव चरिंदिया ताव पुग्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा जस्स जति इंदियाई तइंदियसरीराइं ते पाहारेति। [1857) इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से पूर्ववत (कथन जानना चाहिए / ) वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से जिसके जितनी इन्द्रियां हैं, उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीर का पाहार करते हैं / 1858. सेसा जहा रया जाव बेमाणिया। [1858] शेष जीवों यावत् वैमानिकों तक का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org