Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक के तेरह द्वारों को संग्रहणी गाथा 1865. पाहार 1 भविय 2 सण्णी 3 लेस्सा 4 दिट्ठी य 5 संजय 6 कसाए 7 // णाणे 8 जोगुवनोगे 9-10 वेदे य 11 सरीर 12 पज्जत्ती 13 // 216 / / [1865 संग्रहणी-गाथार्थ] द्वितीय उद्देशक में निम्नोक्त तेरह द्वार हैं-(१) आहारद्वार, (2) भव्यद्वार, (3) संजीद्वार, (4) लेश्याद्वार, (1) दृष्टिद्वार, (6) संयतद्वार, (7) कषायद्वार, (8) ज्ञानद्वार, (6-10) योगद्वार, उपयोगद्वार, (11) वेदद्वार, (12) शरीरद्वार और (14) पर्याप्तिद्वार / विवेचन-द्वितीय उद्देशक में इन तेरह द्वारों के आधार पर आहार का प्ररूपण किया जाएगा। यहाँ ‘भव्य' आदि शब्दों के ग्रहण से उनके विरोधी 'अभव्य' आदि का भी ग्रहण हो जाता है। प्रथम : आहारद्वार 1866. [1] जीवे णं भंते ! कि पाहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय प्राहारए सिय प्रणाहारए। [1866 प्र.] भगवन् ! जीव आहारक है या अनाहारक ? [1866 उ.] गौतम ! वह कथंचित् आहारक है, कथंचित् अनाहारक है / [2] एवं नेरइए जाव असुरकुमारे जाव वेमाणिए / [1866-2] नैरयिक (से लेकर) यावत् असुरकुमार, यावत् वैमानिक तक इसी प्रकार जानना चाहिए। 1867. सिद्धे णं भंते ! कि पाहारए प्रणाहारए? गोयमा ! णो प्राहारए, प्रणाहारए। [1867 प्र.] भगवन् ! एक सिद्ध (जीव) आहारक होता है या अनाहारक ? [1867 उ.] गौतम ! एक सिद्ध (जीव) आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है। 1868. जीवाणं भंते ! कि आहारया अणाहारया ? गोयमा ! आहारगा वि अणाहारगा वि। [1868 प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव आहारक होते हैं, या अनाहारक ? [1868 उ.] गौतम ! वे पाहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं। Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org