________________ अट्ठाईसवां आहारपद [139 क्रोधकषायो को प्ररूपणा-चौबीस दण्डकों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से एक भंगकदाचित् अाहारक-कदाचित् अनाहारक होता है / क्रोधकषायी समुच्चय जीवों तथा एकेन्द्रियों में केवल एक ही भंग-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होता है। शेष जीवों में देवों को छोड़ कर पूर्वोक्त रीति से तीन भंग होते हैं। विशेष-देवों में छह भंग-(१) सभी क्रोधकषायी देव पाहारक होते हैं। यह भंग तब घटित होता है जब कोई भी क्रोधकषायी देव विग्रहगतिसमापन्न नहीं होता, (2) कदाचित सभी क्रोधकषायी देव अनाहारक होते हैं। यह भंग तब घटित होता है, जब कोई भी क्रोधकषायी देव पाहारक नहीं होता। यहाँ मान आदि के उदय से रहित क्रोध का उदय विवक्षित है, इस कारण क्रोधकषायी आहारक देव का प्रभाव सम्भव है, (3) कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक (4) देवों में क्रोध की बहुलता नहीं होती, स्वभाव से ही लोभ की अधिकता होती है, अतः क्रोधकषायी देव कदाचित् एक भी पाया जाता है, (5) कदाचित् बहुत पाहारक और एक अनाहारक और (6) कदाचित् बहुत आहारक और बहुत अनाहारक / ___ मानकषायी और मायाकषायी जीवादि में एकत्व की अपेक्षा से पूर्ववत् एक-एक भंग। बहुत्व को अपेक्षा से-मान-मायाकषायी देवों और नारकों में प्रत्येक में 6 भंग पूर्ववत् समझना चाहिए / देवों और नारकों में मान और माया कषाय की विरलता पाई जाती है, देवों में लोभ की और नारकों में क्रोध की बहुलता होती है। इस कारण 6 हो भंग सम्भव हैं / मान-मायाकषायी शेष जीवों में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन भंग पूर्ववत् होते हैं / समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग-बहुत आहारक-बहुत अनाहारक'-होता है। लोभकषायो जीवादि में लोभकषायी नारकों में पूर्ववत् 6 भंग होते हैं, क्योंकि नारकों में लोभ की तीव्रता नहीं होती / नारकों के सिवाय एकेन्द्रियों और समुच्चय जीवों को छोड़कर शेष जीवों में 3 भंग पूर्ववत् पाये जाते हैं। समुच्चय जीवों ओर एकेन्द्रियों में प्रत्येक में एक ही भंग-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक-पाया जाता है।' अकषायी जीवों में-अकषायी मनुष्य और सिद्ध ही होते हैं। मनुष्यों में उपशान्तकषाय आदि ही अकषायी होते हैं / उनके अतिरिक्त सकषायी होते हैं / अतएव उन सकषायी समुच्चय जीवों, मनुष्यों और सिद्धों में से समुच्चय जीव में और मनुष्य में केवल एक भंग- कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक --पाया जाता है। सिद्ध में-एक भंग--'अनाहारक' ही पाया जाता है। बहुत्व की विवक्षा से—समुच्चय जीवों में बहुत आहारक और बहुत अनाहारक-एक भंग ही होता है / क्योंकि आहारक केवली और अनाहारक सिद्ध बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं। मनुष्यों में पूर्ववत् तीन भंग समझने चाहिए। सिद्धों में केवल एक ही भंग-'अनाहारक' पाया जाता है।' अष्टम : ज्ञानद्वार 1867. पाणी जहा सम्मद्दिट्ठी (सु. 1887) / [1867] ज्ञानी की वक्तव्यता सम्यग्दृष्टि के समान समझनी चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 664 से 667 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 2, पृ. 513-514 (क) वही, मलयत्ति अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 514 (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 667-668 Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org