________________ 120] [प्रज्ञापनासूत्र _ [1850 प्र.] भगवन् ! उपरिम-उपरिम अवेयकों में कितने काल में प्राहारेच्छा उत्पन्न होती है ? [1850 उ.] गौतम ! जघन्य 30 हजार वर्ष में और उत्कृष्ट 31 हजार वर्ष में उन्हें आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है ! 1851. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एक्कतीसाए, उक्कोसेणं तेत्तीसाए। [1851 प्र. भगवन ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [1851 उ.] गौतम ! उन्हें जघन्य 31 हजार वर्ष में और उत्कृष्ट 33 हजार वर्ष में प्राहारेच्छा उत्पन्न होती है। 1852. सव्वट्ठगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं प्राहारट्टे समुप्पज्जति / [1852 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थक (सर्वार्थसिद्ध) देवों को कितने काल में प्राहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [1852 उ ] गौतम ! उन्हें अजघन्य-अनुत्कृष्ट (जघन्य उत्कृष्ट के भेद से रहित) तेतीस हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है / विवेचन-वैमानिक देवों की आहार सम्बन्धी वक्तव्यता-वैमानिक देवों की वक्तव्यता ज्योतिष्क देवों के समान समझनी चाहिए, किन्तु इसमें विशेषता यह है कि वैमानिक देवों को प्राभोग की इच्छा जघन्य दिवस-पथक्त्व में होती है, और उत्कृष्ट 33 हजार वर्षों में। 33 हजार वर्षों में आहार की इच्छा का जो विधान किया गया है, वह अनुत्तरोपपातिक देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। शेष कथन जैसा असुरकुमारों के विषय में किया गया है, वैसा ही वैमानिकों के विषय में जान लेना चाहिए। शुभानुभावरूप बाहुल्य कारण की अपेक्षा से वर्ण से—पीत और श्वेत, गन्ध से सुरभिगन्ध वाले, रस से—अम्ल और मधुर, स्पर्श से--मृदु, लघु स्निग्ध और रूक्ष पुदगलों के पुरातन वर्ण-गन्धरस-स्पर्श-गुणों को रूपान्तरित करके अपने शरीरक्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों का समस्त प्रात्मप्रदेशों से वैमानिक आहार करते हैं, उन आहार किये हुए पुद्गलों को वे श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के रूप में, इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ, मनाम, इष्ट और विशेष अभीष्ट रूप में, हल्के रूप में, भारी रूप में नहीं, सुखदरूप में, दुःखदरूप में नहीं, परिणत करते हैं।' विशेष स्पष्टीकरण-जिन वैमानिक देवों की जितने सागरोपम की स्थिति है, उन्हें उतने ही हजार वर्ष में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इस नियम के अनुसार सौधर्म, इशान आदि देवलोकों में प्राहारेच्छा की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण समझ लेना चाहिए / इसे स्पष्ट१. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 512-513 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 506 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org