Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 116] प्रज्ञापनासूत्र आभोगनिर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्महूर्त से और उत्कृष्ट अष्टमभक्त से (तीन दिन के बाद) होती है / यह कथन भी देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों के मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए / इन दोनों द्वारा गहीत आहार्य पदगल भी पंचेन्द्रियों की विमात्रा के रूप में पनः पन: वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों का अन्य सब कथन तो नागकुमार के समान है, लेकिन आभोगनिर्वर्तित अाहाराभिलाषा जघन्य और उत्कृष्ट दिवसपृथक्त्व (दो दिन से लेकर नौ दिनों) से होती है। इन दोनों प्रकार के देवों की आयु पत्योपम के आठवें भाग को होने से स्वभाव से ही दिवसपृथक्त्व व्यतीत होने पर इन्हें आहार की अभिलाषा होती है।' वैमानिक देवों में आहारादि सात द्वारों की प्ररूपरणा (2-8) 1826. एवं वेमारिणया वि। गवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णणं दिवस-पुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं पाहारट्टे समुप्पज्जति / सेसं जहा असुरकुमाराणं (सु. 1806 [1]) जाव ते तेसि भुज्जो 2 परिणमंति / [1826] इसी प्रकार वैमानिक देवों की भी आहारसम्बन्धी वक्तव्यता जाननी चाहिए / विशेषता यह है कि इनको प्राभोगनिर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्षों में उत्पन्न होती है। शेष वक्तव्यता (सू. 1806-1 में उक्त) असुरकुमारों के समान यावत् 'उनके उन पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है', यहाँ तक कहनी चाहिए। 1830. सोहम्मे आभोगणिन्वत्तिए जहण्णेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं दोण्हं वाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जा / [1830] सौधर्मकल्प में प्राभोगनिर्वतित पाहार की इच्छा जघन्य दिवस-पृथक्त्व से और उत्कृष्ट दो हजार वर्ष से समुत्पन्न होती है। 1831. ईसाणाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णणं दिवसपुहत्तस्स सातिरेगस्स, उक्कोसेणं सातिरेगाणं दोण्हं वाससहस्साणं / [1831 प्र.[ ईशानकल्पसम्बन्धी पूर्ववत् प्रश्न ? [1831 उ.] गौतम ! जघन्य कुछ अधिक दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार वर्ष में (उनको पाहाराभिलाषा उत्पन्न होती है / ) 1832. सणंकुमाराणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दोण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं / [1832 प्र.] सनत्कुमारसम्बन्धी पूर्ववत् प्रश्न ? [1832 उ.] गौतम ! जघन्य दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष में प्राहारेच्छा उत्पन्न होती है। 1 प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा.५, . 589 से 591 तक Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org