Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 114] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! सम्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइज्जमाणा, अणस्साइज्जमाणा अणंतगुणा, अफासाइन्जमाणा अणंतगुणा। - [1821 प्र.] भगवन् ! इन अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान और अनास्वाद्यमान पुद्गलों में से कौन किससे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1821 उ.] गौतम ! अनाघ्रायमाण पुद्गल सबसे कम हैं, उससे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान हैं और अस्पृश्यमान पुद्गल उससे अनन्तगुणे हैं / 1822. तेइंदिया णं भंते ! ज़े पोग्गला० पुच्छा। गोयमा ! घाणिदिय-जिम्भिदिय-फासिदियवेमायत्ताए ते तेसि भुज्जो 2 परिणमंति / [1822 प्र.] भगवन् ! श्रीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुनः-पुनः परिणत होते हैं ? [1822 उ.] गौतम ! वे पुद्गल घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से (अर्थात्-इष्ट–अनिष्टरूप से) पुनः-पुनः परिणत होते हैं। 1823. चाउरिदियाणं चक्खिदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियवेमायत्ताए ते तेसि भुज्जो भुज्जो परिणमंति, सेसं जहा तेइंदियाणं / / [1823] (चतुरिन्द्रिय द्वारा आहार के रूप में गृहीत पुद्गल) चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से पुनः पुनः परिणत होते हैं। चतुरिन्द्रियों का शेष कथन त्रीन्द्रियों के कथन के समान समझना चाहिए। विवेचन --विकलेन्द्रियों के प्राहार के विषय में स्पष्टीकरण-लोमाहार-लोमों या रोमों (रोओं) द्वारा किया जाने वाला आहार लोमाहार कहलाता है। प्रक्षेपाहार अर्थात् कवलाहार, मुख में डाल (प्रक्षिप्त) कर या कौर (ग्रास) के रूप में मुख द्वारा किया जाने वाला आहार प्रक्षेपाहार है / वर्षा आदि के मौसम में प्रोघरूप से पुद्गलों का शरीर में प्रवेश हो जाता है, जिसका अनुमान मूत्र आदि से किया जाता है, वह लोमाहार है। द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय जीव लोमाहार के रूप में जिन पद्गलों को ग्रहण करते हैं, उन सबका पूर्ण रूप से प्राहार करते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही वैसा होता है। तथा जिन पुद्गलों को वे प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का ही आहार कर पाते हैं। उनमें से बहुत-से सहस्रभाग उनके द्वारा बिना स्पर्श किये या बिना प्रास्वादन किये यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि उनमें से कोई पुद्गल अतिस्थूल होने के कारण और कोई अतिसूक्ष्म होने के कारण प्राहृत नहीं हो पाते।' आहार्य पुद्गलों का अल्प-बहुत्व-प्रक्षेपाहार रूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों में सबसे कम पुद्गल अनास्वाद्यमान होते हैं, आशय यह है कि एक-एक स्पर्शयोग्य भाग में अनन्तवाँ भाग आस्वाद के योग्य होता है और उसका भी अनन्तवाँ भाग आघ्राण-(सूधने के) योग्य होता है। अतः - -.-. ...- - --.-- -- . .. 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 584 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org