Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 112] [प्रज्ञापनासूत्र शेष सब कथन नारकों के समान समझ लेना चाहिए / पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक पाहार-सम्बन्धी वक्तव्यता एक-सी है।' विकलेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार (2-8) 1814. बेइंदिया णं भंते ! आहारट्ठी? हंता गोयमा ! पाहारट्ठी। [1814 प्र.] भगवन् ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? [1814 उ.] हाँ, गौतम ! वे अाहारार्थी होते हैं / 1815. बेइंदियाणं भंते ! केवतिकालस्स आहारटु समुप्पज्जति ? जहा रइयाणं (सु. 1766) / गवरं तस्थ णं जे से माभोगणिवत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए पाहार? समुपज्जति / सेसं जहा पुढविक्काइयाणं (सु. 1806) जाव आहच्च णीससंति, णवरं णियमा छद्दिसि। __ [1815 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [1815 उ.] गौतम ! इनका कथन (सू. 1796 में उक्त) नारकों के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि उनमें जो आभोगनिर्वतित पाहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यातसमय के अन्तर्महर्त में विमात्रा से उत्पन्न होती है। शेष सब कथन पृथ्वीकायिकों के समान र "कदाचित् निःश्वास लेते हैं" यहाँ तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि वे नियम से छह दिशामों से (आहार लेते हैं / ) 1816. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसि पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारति कतिभागं अस्साएंति ? एवं जहा णेरइयाणं (सु. 1803) / [1816 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को प्राहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का पास्वादन करते हैं ? [1816 उ.] गौतम ! इस विषय में (सू. 1803 में उक्त) नैरयिकों के समान कहना चाहिए। 1817. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले प्राहारत्ताए गेण्हंति ते कि सम्वे प्राहारेंति, णो सव्वे आहारेंति ? गोयमा ! बेइंदियाणं दुविहे प्राहारे पण्णत्ते, तं जहा लोमाहारे य पक्खेवाहारे य / जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गेण्हंति ते सव्ये अपरिसेसे प्राहारेंति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेहंति तेसि प्रसंखे१. (क) पण्णवणासुत्तं, भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 394-395 (ख) प्रज्ञानासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 563-566 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org