Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद [111 [1810 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को पाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? . [1810 उ.] गौतम ! ( आहार के रूप में गृहीत पुद्गलों के) असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का पास्वादन करते हैं / 1811. पुढविक्काइया णं भंते ! जे पुग्गले आहारत्ताए गिण्हंति ते कि सम्वे पाहारेंति को सम्वे पाहारेति ? जहेव णेरइया (सु. 1804) तहेव। [1811 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सभी का आहार करते हैं अथवा उन सबका आहार नहीं करते ? (अर्थात् सबके एक भाग का आहार करते हैं ?) [1811 उ.] गौतम ! जिस प्रकार (सू. 1804 में) नैरयिकों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में कहना चाहिए। 1812. पुढविक्काइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते गं तेसि पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति ? गोयमा ! फासेंदियवेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति / [1812 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल (पृथ्वीकायिकों में) किस रूप में पुन:-पुनः परिणत होते हैं ? [1812 उ.] गौतम ! (वे पुद्गल) स्पर्शेन्द्रिय की विषम मात्रा के रूप में (अर्थात् इष्ट एवं अनिष्ट रूप में) बार-बार परिणत होते हैं / 1813. एवं जाव वणप्फइकाइयाणं / [1813] इसी प्रकार (पृथ्वीकायिकों) की वक्तव्यता के समान (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिकों की (वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए।) विवेचन—पृथ्वीकायिक प्रादि एकेन्द्रियों को प्राहार-सम्बन्धी विशेषता-पृथ्वीकायिक प्रतिसमय अविरतरूप से प्रहार करते हैं / वे निर्याघात की अपेक्षा छहों दिशाओं का और व्याघात की अपेक्षा कदाचित् तीन, चार या पांच दिशाओं का आहार लेते हैं। इनमें एकान्त शुभानुभाव या अशुभानुभावरूप बाहुल्य नहीं पाया जाता / पृथ्वीकायिकों के द्वारा आहार के रूप में गृहीत पुद्गल उनमें स्पर्शेन्द्रिय की विषममात्रा के रूप में परिणत होते हैं। इसका प्राशय यह है कि नारकों के समान एकान्त अशुभरूप में तथा देवों के समान एकान्त शुभरूप में उनका परिणमन नहीं होता, किन्तु बार-बार कभी इष्ट और कभी अनिष्ट रूप में उनका परिणमन होता है। यही नारकों से पृथ्वीकायिकों की विशेषता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org