________________ अट्ठाईसवा आहारपद [115 सबसे कम अनाघ्रायमाण पुद्गल होते हैं। उनसे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान होते हैं और उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल अस्पृश्यमान होते हैं।' पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों, मनुष्यों, ज्योतिष्कों एवं वारपव्यन्तरों में आहारार्थी अादि सात द्वार 1824. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा तेइंदिया। णवरं तत्थ णं जे से प्राभोगणिन्वत्तिए से जहण्णेणं अंतोमुत्तस्स, उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स आहार? समुष्पज्जति / [1824] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का कथन त्रीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए। विशेष यह है कि उनमें जो आभोगनिर्वतित पाहार है, उस पाहार की अभिलाषा उन्हें जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट षष्ठभक्त से (अर्थात् दो दिन छोड़ कर) उत्पन्न होती है। 1825. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते / जे पोग्गले प्राहारत्ताए० पुच्छा। गोयमा ! सोइंदिय-चक्विंदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासेंदियवेमायत्ताए भुज्जो 2 परिणमंति। [1825 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जिन पुद्गलों को प्राहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुनः पुनः प्राप्त होते हैं ? [1825 उ.] गौतम ! आहाररूप में गृहीत वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं। 1826. मणूसा एवं चेव / णवरं प्राभोगणिव्वत्तिए जहणेणं अंतोमुहत्तस्स, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स प्राहारट्टे समुप्पज्जति / [1826] मनुष्यों की आहार-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार है / विशेष यह है कि उनकी आभोगनिर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में होती है और उत्कृष्ट अष्टमभक्त (काल व्यतीत) होने पर उत्पन्न होती है / 1827. वाणमंतरा जहा णागकुमारा (सु. 1806 [2] ) / [1827] वाणव्यन्तर देवों का आहार-सम्बन्धी कथन नागकुमारों के समान जानना चाहिए / 1828. एवं जोइसिया वि / णवरं प्राभोगणिवत्तिए जहणणं दिवस-पुहत्तस्स, उक्कोसेण वि दिवसपुहत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति / [1828] इसी प्रकार ज्योतिष्कदेवों का भी कथन है। किन्तु उन्हें प्राभोगनिर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट भी दिवस-पृथक्त्व में उत्पन्न होती है। विवेचन-तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय अादि की प्राहारसम्बन्धी विशेषता उनको प्राभोगनिर्वत्तित आहार की इच्छा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट षष्ठभक्त में (दो दिन के बाद) होती है। यह कथन देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों के तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों की अपेक्षा से समझना चाहिए ! मनुष्यों को 1. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 504 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org