Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [113 ज्जइभागमाहारेंति गाई च णं भागसहस्साई अफासाइज्जमाणाणं प्रणासाइज्जमाणाणं विद्धंसमागच्छति। [1817 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं अथवा उन सबका आहार नहीं करते ? (अर्थात् उन सबके एक भाग का आहार करते हैं ?) [1817 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का कहा है / यथा—लोमाहार और प्रक्षेपाहार। वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सबका समग्ररूप से आहार करते हैं और जिन पद्गलों को प्रक्षेपाहाररूप में ग्रहण करते हैं, उनमें से असंख्यातवें भाग का ही पाहार करते हैं। उनके बहुत-से (अनेक) सहस्र भाग यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, न ही उनका बाहर-भीतर स्पर्श हो पाता है और न ही प्रास्वादन हो पाता है / 1818. एतेसि णं भंते ! पोग्गलाणं प्रणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कतरे कतरेहितो 4 ?' गोयमा ! सम्वत्थोवा पोग्गला अणासाइज्जमाणा, अफासाइज्जमाणा अणंतगुणा / [1818 प्र. भगवन् ! इन पूर्वोक्त प्रक्षेपाहारपुद्गलों में से प्रास्वादन न किये जाने वाले तथा स्पृष्ट न होने वाले पुद्गलों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [1818 उ.] गौतम ! सबसे कम आस्वादन न किये जाने वाले पुद्गल हैं, उनसे अनन्तगुणे (पुद्गल) स्पृष्ट न होने वाले हैं / 1819. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए० पुच्छा। गोयमा ! जिभिदिय-फासिदियवेमायत्ताए ते तेसि भुज्जो 2 परिणमंति। [1819 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किस-किस रूप में पुन: पुनः परिणत होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1819 उ.] गौतम ! वे पुद्गल जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनःपुनः परिणत होते हैं। 1820. एवं जाव चरिदिया। णवरं गाइं च णं भागसहस्साई अणग्घाइज्जमाणाई अफासाइज्जमाणाई अणस्साइज्जमाणाई विद्धंसमागच्छति / [1820] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक के विषय में कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) द्वारा प्रक्षेपाहाररूप में गृहीत पुद्गलों के अनेक सहस्र भाग अनाघ्रायमाण (नहीं सूघे हुए), अस्पृश्यमान (बिना छूए हुए) तथा अनास्वाद्यमान (स्वाद लिये बिना) ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं। 1821. एतेसि णं भंते ! पोग्गलाणं अणाघाइज्जमाणाणं अणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? 1. 4 सूचक चिह्न-'प्रपा वा वहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?' इस पाठ का सूचक है / --सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org