________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [109 सातिरेगस्स वाससहस्सस्स प्राहारठे समुप्पज्जति / प्रोसण्णकारणं पडुच्च वण्णो हालिद्द-सुक्किलाइ गंधयो सुम्भिगंधाइं रसओ अंबिल-महराई फासपो मउय-लहुअ-णिझुण्हाई तेसि पोराणे वण्णगुणे जाव फासिदियत्ताए जाव मणामत्ताए इच्छियत्ताए अभिझियत्ताए उद्धृत्ताए णो अहत्ताए सुहत्ताए जो दुहत्ताए ते तेसि भुज्जो 2 परिणमंति / सेसं जहा णेरइयाणं / [1806-1 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ? [1806-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं / जैसे नारकों की वक्तव्यता कही, वैसे ही असुरकुमारों के विषय में यावत् ... 'उनके पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है' यहाँ तक कहना चाहिए / उनमें जो आभोगनिर्वतित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ-भक्त पश्चात् एवं उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष में उत्पन्न होती है। बाहल्यरूप कारण की अपेक्षा से वे वर्ण से-पीत और श्वेत, गन्ध से-सुरभिगन्ध वाले, रस से-ग्राम्ल और मधुर तथा स्पर्श से-मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण (पुद्गलों का आहार करते हैं।) (आहार किये जाने वाले) उन (पुद्गलों) के पुराने वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को विनष्ट करके, अर्थात पूर्णतया परिवर्तित करके, अपूर्व यावत् --वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को उत्पन्न करके (अपने शरीर-क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों का सर्व-प्रात्मप्रदेशों से पाहार करते हैं / आहाररूप में गहीत वे पुदगल श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के रूप में तथा इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ,) मनोज्ञ, मनाम रूप में परिणत / भारीरूप में नहीं. सखरूप में परिणत होते हैं, दूःखरूप में नहीं / (इस प्रकार असूरकूमारों द्वारा गहीत) वे पाहार्य पूदगल उनके लिए पुनः पुनः परिणत होते हैं। शेष कथन नारकों के कथन के समान जानना चाहिए। [2] एवं जाव थणियकुमाराणं / णवरं आभोगणिव्वत्तिए उक्कोसेणं दिवसपुहत्तस्त पाहारठे समुप्पज्जति। [1806-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक का कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिए / विशेष यह है कि इनका पाभोगनिर्वतित आहार उत्कृष्ट दिवस-पृथक्त्व से होता है / विवेचन-असुरकुमारों आदि को आहाराभिलाषा-असुरकुमारों को बीच-बीच में एक-एक दिन छोड़ कर आहार की अभिलाषा होती है, यह कथन दस हजार वर्ष की आयु वाले असुरकुमारों की अपेक्षा से समझना चाहिए। उत्कृष्ट अभिलाषा कुछ अधिक सातिरेक सागरोपम की स्थिति वाले बलीन्द्र की अपेक्षा से है। शेष भवनपतियों का आभोगनिर्वतित आहार उत्कृष्ट दिवस-पृथक्त्व से होता है। यह कथन पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु तथा उससे अधिक आयु वालों की अपेक्षा से समझना चाहिए / असुरकुमार प्रसनाडी में ही होते हैं / अतएव वे छहों दिशाओं से पुद्गलों का आहार कर सकते हैं। आहार-सम्बन्धी शेष कथन मूलपाठ में स्पष्ट है।' 1. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, पृ. 555 से 559 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org