________________ पंचवीसइमं कम्मबंधवेयपयं पच्चीसवाँ कर्मबन्धवेदपद जीवादि द्वारा ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध के समय कर्म-प्रकृतिवेद का निरूपण 1766. [1] कति णं भंते ! कम्मपगडीयो पण्णत्तायो? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्तानो / तं जहा–णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [1766-1 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [1769-1 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ पाठ कही गई हैं। यथा—ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / [1766-2] इसी प्रकार नैरयिकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक (के ये ही आठ कर्मप्रकृतियाँ कही गई हैं / ) 1770. [1] जीवे णं भंते ! गाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा! णियमा अट्ठ कम्मपगडीयो वेदेति / [1770-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध करता हुआ जीव, कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [1770-1 उ.] गौतम ! वह नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है / [2] एवं रइए जाव वेमाणिए / [1770-2] इसी प्रकार (एक) नैरयिक (से लेकर) यावत् (एक) वैमानिक पर्यन्त (जीवों में इन्हीं पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन जानना चाहिए / ) 1771. एवं पुहत्तेण वि। [1771] इसी प्रकार बहुत (नारकों से लेकर यावत् बहुत वैमानिकों तक) के विषय में (कहना चाहिए / ) 1772. एवं वेयणिज्जवज्जं जाव अंतराइयं / [1772] वेदनीयकर्म को छोड़कर शेष सभी (छह) कर्मों के सम्बन्ध में इसी प्रकार(ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना चाहिए।) 1773. [1] जीवे णं भंते ! वेयणिज्जं कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपगडीयो वेएइ ? गोयमा ! सत्तविहवेयए वा अविहवेयए वा चउविहवेयए वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org