________________ 98] [प्रज्ञापनासूत्र (III) दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म-सम्बन्धी वक्तव्यता भी ज्ञानावरणीय के समान कहनी चाहिए। (iv) वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र, इन कर्मों का वेदन करता हुआ जीव बन्ध-वेदकवत् पाठ, सात या चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। (v) मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ समुच्चयी जीव व नैरयिक से वैमानिक तक के जीव एकत्व या बहुत्व की अपेक्षा से नियमतः पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं।' // प्रज्ञापना भगवती का सत्ताईसवाँ कर्मवेदवेदकपद सम्पूर्ण // 1. (क) पण्णवणासुर्त (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 391 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 523 से 527 तक (ग) प्रज्ञापना. मलय, वृत्ति, पद 27 अभिधान राजेन्द्र कोष भा. 3, पृ. 294-295 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org