________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [105 [1798-2 उ.] गौतम ! वे एक गुण काले पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं / इसी प्रकार (रक्तवर्ण से लेकर) यावत् शुक्लवर्ण के विषय में पूर्वोक्त प्रश्न और समाधान जानना चाहिए। 1766. एवं गंधयो वि रसतो वि। [1766] इसी प्रकार गन्ध और रस की अपेक्षा से भी पूर्ववत् पालापक कहने चाहिए। 1800. [1] जाई भावनो फासमंताई ताई णो एगफासाइं आहारेंति, णो दुफासाई प्राहारेति, णो तिफासाई आहारेंति, चउफासाई अाहारेति जाव अट्ठफासाई पि आहारति, विहाणमग्गणं पडुच्च कक्खडाई पि आहारेंति जाव लुक्खाइं पि। [1800-1] जो जीव भाव से स्पर्शवाले पुद्गलों का अाहार करते हैं, वे न तो एक स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, न दो और तीन, स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते, अपितु चतु:स्पर्शी यावत् अष्टस्पर्शी पुद्गलों का आहार करते हैं। विधान (भेद) मार्गणा की अपेक्षा से वे कर्कश यावत् रूक्ष पुद्गलों का भी आहार करते हैं / [2] जाई फासओ कक्खडाई पाहारेति ताई कि एगगुणकक्खडाई अाहारेंति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि आहारति। गोयमा! एगगुणकक्खडाई पि आहारति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि प्राहारेति ? एवं अट्ठ वि फासा भाणियत्वा जाव अणंतगुणलुक्खाई पि प्राहारेति / [1800-2 प्र.] भगवन् ! वे जिन कर्कश स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एकगुण कर्कश पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अनन्त गुण कर्कश पुद्गलों का प्रहार करते हैं ? [1800-2 उ.] गौतम ! वे एकगुण कर्कश पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् अनन्तगुण कर्कश पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं। इसी प्रकार क्रमश: पाठों ही स्पशों के विषय में यावत् 'अनन्तगुण रूक्ष पुद्गलों का भी आहार करते हैं'; यहाँ तक (कहना चाहिए)। __[3] जाइं भंते ! अणंतगुणलुक्खाई आहारेति ताई कि पुट्ठाई आहारैति अपुट्ठाई आहारेंति ? ___ गोयमा ! पुट्ठाइं पाहारेंति, णो अपुट्ठाई प्राहारेंति, जहा भासुद्देसए (सु. 877 [15-23]) जाव णियमा छद्दिसि पाहारेति / [1800-3 प्र.] भगवन् ! वे जिन अनन्तगुण रूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं या अस्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं ? [1800-3 उ.] गौतम ! वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं, अस्पृष्ट पुद्गलों का नहीं / (सू. 877-15-23 में उक्त) भाषा-उद्देशक में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार वे यावत् नियम से छहों दिशाओं में से आहार करते हैं। 1801. प्रोसण्णकारणं पडुच्च वण्णओ काल-नीलाई गंधयो दुब्भिगंधाई रसतो तित्तरसकडुयाई फासओ कक्खड-गरुय-सोय-लुक्खाई तेसि पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे फासगुणे विप्परिणामइत्ता परिपोलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता अण्णे अपुव्वे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाएत्ता प्रायसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सन्चप्पणयाए प्राहारमाहारेति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org