Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 106] [प्रज्ञापनासूत्र [1801] बहुल कारण की अपेक्षा से जो वर्ण से काले-नीले, गन्ध से दुर्गन्ध वाले, रस से तिक्त (तीखे) और कटुक (कडुए) रस वाले और स्पर्श से कर्कश, गुरु (भारी), शीत (ठंडे) और रूक्ष स्पर्श हैं, उनके पुराने (पहले के) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण का विपरिणमन (परिवर्तन) कर, परिपीडन परिशाटन और परिविध्वस्त करके अन्य (दूसरे) अपूर्व (नये) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण को उत्पन्न करके अपने शरीरक्षेत्र में अवगाहन किये हुए पुद्गलों का पूर्णरूपेण (सर्वात्मना) आहार करते हैं / 1802. रइया णं भंते ! सव्वतो पाहारेति, सव्वतो परिणामेंति, सव्वनो ऊससंति, सव्यत्रो णीस संति, अभिक्खणं पाहारेंति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं णीससंति, आहच्च आहारेंति, आहच्च परिणामेंति पाहच्च ऊससंति आहच्च णीससंति ? हंता गोयमा ! गैरइया सव्वतो पाहारेंति एवं तं चेव जाव पाहच्च गोससंति / [1802 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सर्वतः (समग्रता से) आहार करते हैं ? पूर्णरूप से परिणत करते हैं ? सर्वतः उच्छ्वास तथा सर्वतः निःश्वास लेते हैं ? बार-बार पाहार करते हैं ? बार-बार परिणत करते हैं ? बार-बार उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? अथवा कभी-कभी आहार करते हैं ? कभी-कभी परिणत करते हैं ? और कभी-कभी उच्छ्वास एवं नि:श्वास लेते हैं ? [1802 उ.] हाँ, गौतम ! नैरयिक सर्वतः आहार करते हैं, इसी प्रकार वही पूर्वोक्तवत् यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं / 1803. णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले प्राहारत्ताए गेण्हंति ते गं तेसि पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं प्राहारेंति कतिभागं प्रासाएंति ? गोयमा ! असंखेज्जतिभागं प्राहारेंति अणंतभागं अस्साएंति / [1803 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों का आगामी काल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? [1803 उ.] गौतम ! वे असंख्यातवें भाग का अाहार करते हैं और अनन्तवें भाग का प्रास्वादन करते हैं ? 1804. जेरइया जं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति ते कि सव्वे आहारेंति णो सब्वे पाहारेति ? गोयमा ! ते सव्वे प्रपरिसेसिए प्राहारेति / [1804 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सबका आहार कर लेते हैं अथवा सबका आहार नहीं करते ? [1804 उ.] गौतम ! शेष बचाये बिना उन सबका पाहार कर लेते हैं। 1805. रइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भज्जो 2 परिणमंति? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org