Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 104] [प्रज्ञापनासूत्र [1766 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों को कितने काल के पश्चात् आहार की इच्छा (आहारार्थ) समुत्पन्न होती है ? [1796 उ.] गौतम ! नैरयिकों का आहार दो प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) आभोगनिर्वतित, (उपयोगपूर्वक किया गया) और (2) अनाभोगनिर्वतित / उनमें जो अनाभोगनिवर्तित (बिना उपयोग के किया हुअा) है, उस पाहार की अभिलाषा प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होती रहती है, किन्तु जो आभोगनिर्वत्तित (उपयोगपूर्वक किया हुआ) आहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यात-समय के अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है। 1797. रइया णं भंते ! किमाहारमाहारेति ? गोयमा ! दध्वनो अणंतपदेसियाई, खेत्तनो असंखेज्जपदेसोगाढाई, कालतो अण्णतरठितियाई, भावनो वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई। [1767 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कौन-सा आहार ग्रहण करते हैं ? [1797 उ.] गौतम ! बे द्रव्यतः-अनन्तप्रदेशी (पुद्गलों का) आहार ग्रहण करते हैं, क्षेत्रत:असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ (रहे हुए), कालत:--किसी भी (अन्यतर) कालस्थिति वाले और भावतः-वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्श वान् पुद्गलों का आहार करते हैं। 1768. [1] जाई भावप्रो वण्णमंताई पाहारैति ताई कि एगवण्णाई आहारति जाव कि पंचवण्णाई आहारेंति ? गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई पि प्राहारेंति जाव पंचवन्नाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाई पिाहारेति जाव सुक्किलाई पि प्राहारेति / [1768-1 प्र.] भगवन् ! भाव से (नैरयिक) वर्ण वाले जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् क्या वे पंच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? [1798-1 उ.] गौतम ! वे स्थानमार्गणा (सामान्य) की अपेक्षा से एक वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् पांच वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं तथा विधान (भेद) मार्गणा की अपेक्षा से काले वर्ण वाले पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं यावत् शुक्ल (श्वेत) वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं। [2] जाई वणो कालवण्णाई प्राहारेति ताई कि एगगुणकालाई प्राहारेंति जाव दसगुणकालाई प्राहारेंति संखेज्जगुणकालाई प्रसंखेज्जगुणकालाई अणंतगुणकालाई प्राहारेति ? ___ गोयमा ! एगगुणकालाई पि आहारति जाव अणतगुणकालाई पि आहारेति / एवं जाव सुक्किलाई पि। [1798-2 प्र.] भगवन् ! वे वर्ण से जिन काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक गुण काले पुद्गलों का पाहार करते हैं यावत् दस गुण काले, संख्यातगुण काले, असंख्यातगुण काले या अनन्तगुण काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org