Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सत्ताईसवाँ कर्मवेदवेदकपद] 3. अथवा कई जीव आठ और कई सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं / इसी प्रकार मनुष्यपद में भी ये तीन भंग होते हैं / 1760. दरिसणावरणिज्जं अंतराइयं च एवं चेव भाणियव्वं / [1760] दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के वेदन के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। 1761. वेदणिज्ज-प्राउअ-णाम-गोयाई वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! जहा बंधगवेयगस्स वेदणिज्जं (सु. 1773-74) तहा भाणियन्वं / [1791 प्र.] भगवन ! वेदनीय, प्रायू, नाम और गोत्रकर्म का वेदन करता हया (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [1761 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1773-74 में) बन्धक-वेदक के वेदनीय का कथन किया गया है, उसी प्रकार वेद-वेदक के वेदनीय का कथन करना चाहिए। 1762. [1] जोवे णं भंते ! मोहणिज्ज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! णियमा अट्ट कम्मपगडीओ वेदेति / [1792-1 प्र.] भगवन् ! मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [1762-1 उ.] गौतम ! वह नियम से पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है / [2] एवं रइए जाव वेमाणिए। [1762-2] इसी प्रकार नारक से लेकर वैमानिक पर्यन्त (अष्टविध कर्मप्रकृतियों का) वेदन होता है। [3] एवं पुहत्तेण वि। // पण्णवणाए भगवतीए सत्तावीसतिमं कम्मवेदवेदयपयं समत्तं // [1792-3] इसी प्रकार बहुत्व की विवक्षा से भी सभी जीवों और नारक से वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए। विवेचन-वेद-वेदक चर्चा का निष्कर्ष-इस पद का प्रतिपाद्य यह है कि जीव ज्ञानावरणीय आदि किसी एक कर्म का वेदन करता हुआ, अन्य कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? / (I) ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुमा कोई जीव या कोई मनुष्य यानी उपशन्तमोह या क्षीणमोह मनुष्य मोहनीयकर्म का वेदक न होने से सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है, इसके अतिरिक्त सूक्ष्मसम्पराय तक सभी जीव या मनुष्य पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। (II) बहुत जीवों की अपेक्षा से तीन भंग होते हैं—(१) सभी जीव प्राठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, (2) अथवा कई आठ के वेदक होते हैं और कोई एक सात का वेदक होता है, (3) अथवा कई पाठ के और कई सात के वेदक होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org