________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद : प्राथमिक] [101 * मनुष्य चाहे तो तपश्चर्या के द्वारा दीर्घकाल तक निराहार रह सकता है और अनाहारकता ही रत्नत्रयसाधना का अन्तिम लक्ष्य है / इसी के लिए संयतासंयत तथा संयत होकर अन्त में नोसंयत-नोअसंयत-नो-संयतासंयत बनना है। यह इसके संयतद्वार में स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है।' * कुल मिलाकर आहार-सम्बन्धी चर्चा साधकों और श्रावकों के लिए ज्ञानवर्द्धक, रसप्रद, आहार विज्ञान-सम्मत एवं आत्मसाधनाप्रेरक है। 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भाम 1, पृ. 403 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org