________________ 100 (प्रज्ञापनासूत्र होता है और औदारिक शरीरधारी का श्राहार सचित्त, अचित्त और मिश्र तीनों प्रकार का होता है। जो आहार ग्रहण किया जाता है, वह दो प्रकार का है-आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित / अपनी इच्छा हो और आहार लिया जाए, वह आभोगनिर्वतित तथा बिना ही इच्छा के आहार हो जाए, वह अनाभोगनिर्वतित आहार है। इच्छापूर्वक आहार लेने में विभिन्न जीवों की पृथक्-पृथक् काल-मर्यादाएँ हैं। परन्तु इच्छा के बिना लिया जाने वाला आहार तो निरन्तर लिया जाता है / फिर यह भी स्पष्ट किया गया है कि कौन जीव किस प्रकार का आहार लेता है ? वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श गुणों से युक्त आहार लिया जाता है, उसमें भी बहुत विविधता है / नारकों द्वारा लिया जाने वाला पाहार अशुभवर्णादि वाला है और देवों द्वारा लिया जाने वाला आहार शुभवर्णादि वाला है। कोई 6 दिशा से तथा कोई तीन, चार, पांच दिशाओं से आहार लेता है / आहाररूप में ग्रहण किए गये पुद्गल पांच इन्द्रियों के रूप में तथा अंगोपांगों के रूप में परिणत होते हैं / शरीर भी आहारानुरूप होता है / आहार के लिए लिये जाने वाले पुद्गलों का असंख्यातवाँ भाग आहाररूप में परिणत होता है तथा उनके अनन्तवें भाग का प्रास्वादन होता है। * अन्तिम प्रकरण में यह भी बताया गया है कि चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में से कौन लोमाहार और कौन प्रक्षेपाहार (कवलाहार) करता है ? तथा किसके प्रोज-आहार होता है, किसके मनोभक्षण आहार होता है ? कौन जीव किस जीव के शरीर का आहार करता है ? इस तथ्य को यहाँ स्थूल रूप से प्ररूपित किया गया है / सूत्रकृतांगसूत्र श्रुत. 2, अ. 3 आहारपरिज्ञा-अध्ययन में तथा भगवतोसूत्र में इस तथ्य की विशेष विश्लेषणपूर्वक चर्चा की गई है कि पृथ्वीकायिकादि विभिन्न जीव वनस्पतिकाय अादि के अचित्त शरीर को विध्वस्त करके आहार करते हैं, गर्भस्थ मनुष्य आदि जीव अपने माता की रज और पिता के शुक्र आदि का आहार करते हैं। स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों का चार-चार प्रकार का आहार बताया है / जैसे-तिर्यञ्चों का चार प्रकार का आहार-(१) कंकोपम, (2) बिलोपम, (3) पाण (मातंग) मांसोपम और (4) पुत्रमांसोपम / मनुष्यों का चार प्रकार का आहार-अशन, पान, खादिम और स्वादिम / देवों का चार प्रकार का आहार है--वर्णवान, रसवान, गन्धवान् और स्पर्शवान् / आहार की अभिलाषा में देवों की आहाराभिलाषा, जिसमें वैमानिक देवों की आहाराभिलाषा बहुत लम्बे काल की, उत्कृष्ट 33 हजार वर्ष तक की बताई गई है। इसलिए ज्ञात होता है कि चिरकाल के बाद होने वाली आहारेच्छा किसी न किसी पूर्वजन्म कृत संयम-साधना या पुण्यकार्य का सुफल है। 1. पण्णवणासुतं (मू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 393 से 405 2. स्थानांगसूत्र, स्था. 4 3. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 397-98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org