Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ प्रिज्ञापनासूत्र विवेचन-वेदनीयकर्म के वेदन के क्षणों में अन्य कर्मों का बन्ध-(१) एक जीव और मनुष्य-सात, आठ, छह या एक प्रकृति का बन्धक होता है अथवा प्रबन्धक होता है / तात्पर्य यह है कि सयोगीकेवली, उपशान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानवर्ती जीव वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए केवल एक वेदनीय प्रकृति का बन्ध करते हैं, क्योंकि सयोगीकेवली में भी वेदनीय कर्म का उदय और बंध पाया जाता है। अयोगीकेवली प्रबन्धक होते हैं। उनमें वेदनीयकर्म का वेदन होता है, किन्तु योगों का भी प्रभाव हो जाने से उसका या अन्य किसी भी कर्म का बन्ध नहीं होता। (2) मनुष्य के सिवाय नारक से वैमानिक तक-वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए 7 या 8 कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं / (3) बहत से जीव-तीन भंग- सभी ! ब. ब. ब. ए. ब. ब. ब. ब. = तीन भंग 781 7 8 16 7 8 16 प्रबंधक के साथ एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा-दो भंग (एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा) अथवा ब. ब. ब. ए. ए. 7 8 1 6 अबं.-४ भंग =कुल 6 भंग समुच्चय जीवों के एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा। (4) एकेन्द्रिय जीव-कोई विकल्प नहीं / बहु. और बहु. के बंधक होते हैं। (5) मनुष्य को छोड़कर नारक से वैमानिक तक पूर्ववत् तीन भंग / (6) मनुष्य-(एकत्व या बहुत्व की अपेक्षा)=२७ भंग (ज्ञानावरणीयकर्म-बन्धवत्)' आयुष्य नाम और गोत्र कर्म के सम्बन्ध में वेदनीय कर्मवत् / आयुष्यादि कर्मवेदन के समय कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपरणा 1785. एवं जहा वेदणिज्जं तहा पाउयं णामं गोयं च भाणियग्वं / [1785] जिस प्रकार वेदनीयकर्म के वेदन के साथ कर्मप्रकृतियों के बन्ध का कथन किया गया है, उसी प्रकार प्रायुष्य, नाम और गोत्रकर्म के विषय में भी कहना चाहिए / 1786. मोहणिज्ज वेदेमाणे जहा बंधे णाणावरणिज्जं तहा भाणियध्वं (सु. 1755-61) / ॥पण्णवणाए भगवईए छन्वीसइमं कम्मवेयबंधपयं समत्तं // [1786] जिस प्रकार (सू. 1755-61 में) ज्ञानावरणीय कर्मप्रकृति के बन्ध का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ मोहनीयकर्म के देदन के साथ बन्ध का कथन करना चाहिए। विवेचन-मोहनीयकर्मवेदन के साथ कर्मबन्ध-ज्ञानावरणीय के समान अर्थात्- मोहनीय 1. (क) प्रशापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. यू. 5,513 से 517 तक (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. (अभिधान राजेन्द्रकोष भा. 3) पद 26, पृ' 296 (ग) पण्णवणासुत्त भा. 1 (मू. पा. टि.) पृ. 390 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org