Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तेईसवाँ कर्मपद (51 [26] सुन्भिगंधणामए पुच्छा / गोयमा ! जहा सुक्किलवणणामस्स (सु. 1702 [24]) / [1702-26 प्र. सुरभिगन्ध-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न ? [1702-26 उ.] गौतम ! इसकी स्थिति (सू. 1702-24 में उल्लिखित) शुक्लवर्णनामकर्म की स्थिति के समान है / [30] दुन्भिगंधणामए जहा सेवट्टसंघयणस्स / [1702-30] दुरभिगन्ध-नामकर्म की स्थिति सेवार्तसंहनन-नामकर्म (की स्थिति) के समान (जानना / ) [31] रसाणं महुरादीणं जहा वण्णाणं भणियं (सु. 1702 [24-28]) तहेव परिवाडीए भाणियव्यं / [1702-31] मधुर प्रादि रसों की स्थिति का कथन (सू. 1702-24-28 में उल्लिखित) वर्णों को स्थिति के समान उसी क्रम (परिपाटी) से कहना चाहिए। [32] फासा जे अपसत्था तेसि जहा सेवट्टस्स, जे पसत्था तेसि जहा सुक्किलवण्णणामस्स (सु. 1702 [24]) / [1702-32] जो अप्रशस्त स्पर्श हैं, उनकी स्थिति से वार्तसंहनन की स्थिति के समान तथा प्रशस्त स्पर्श हैं, उनकी स्थिति (सू. 1702-24) में उल्लिखित शुक्लवर्णनामकर्म की स्थिति के समान कहनी चाहिए। [33] अगुरुलहुणामए जहा सेवट्टस्स / [1702-33] अगुरुलघुनामकर्म की स्थिति सेवार्तसंहनन की स्थिति के समान जानना / [34] एवं उवघायणामए वि। [1702-34] इसी प्रकार उपघातनामकर्म की स्थिति के विषय में भी कहना चाहिए। [35] पराघायणामए वि एवं चेव / [1702-35] पराघातनामकर्म की स्थिति भी इसी प्रकार है / [36] हिरयाणपुग्विणामए पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोतमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाइं प्रवाहा० / [1702-36 प्र.] नरकानुपूर्वी-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी पृच्छा? [1702-36 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम को है। बीस सौ (दो हजार) वर्ष का इसका अबाधाकाल है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org