________________ 64] [प्रज्ञापनासूत्र [1711-2] एकेन्द्रियजाति-नामकर्म और पंचेन्द्रियजाति-नामकर्म का बन्धकाल नपुंसकवेद के समान जानना चाहिए तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति-नामकर्म का बंध जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग बांधते हैं और उत्कृष्ट वही पुस भाग पूरे बांधते हैं। 1712. एवं जत्थ जहण्णगं दो सत्तभागा तिणि वा चत्तारि वा सत्तभागा अट्ठावीसतिभागा० भवंति तत्थ णं जहणणं ते चेव पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा भाणियन्वा, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / जत्थ णं जहणणं एगो वा दिवड्ढो वा सत्तभागो तत्थ जहण्णणं तं चेव भाणियन्वं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1712] जहाँ जघन्यत: भाग, 3 भाग या भाग अथवा 18, 36 एवं 26 भाग कहे हैं, वहाँ वे ही भाग जघन्य रूप से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम कहने चाहिए और उत्कृष्ट रूप में वे ही भाग परिपूर्ण समझने चाहिए। इसी प्रकार जहाँ जघन्य रूप से' या " भाग है, वहाँ जघन्य रूप से वही भाग कहना चाहिए और उत्कृष्ट रूप से वही भाग परिपूर्ण कहना चाहिए। 1713. जसोकित्ति-उच्चागोयाणं जहण्णेणं सागरोवमस्स एगं सतभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1713] यश:कोतिनाम और उच्चगोत्रकर्म का एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग का एवं उत्कृष्टतः सागरोपम के पूर्ण भाग का बन्ध करते हैं। 1714. अंतराइयस्स णं भंते !0 पुच्छा। गोयमा ! नहा गाणावरणिज्जस्स जाव उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / [1714 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव अन्तरायकर्म का बन्ध कितने काल का करते हैं ? [1714 उ.] गौतम ! इनका अन्तरायकर्म का जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल ज्ञानावरणीय कर्म के समान जानना चाहिए। विवेचन-इससे पूर्व सभी कर्म-प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, अबाधाकाल एवं निषेककाल का प्रतिपादन किया गया था। इस प्रकरण में एकेन्द्रिय जीव बन्धकों के कर्मों की स्थिति की प्ररूपणा की गई है। अर्थात एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीयादि कर्म का जो बन्ध होता है, उसकी स्थिति कितने काल तक की होती है ? ' निम्नोक्त रेखाचित्र से एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीयादि कर्मों की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति का आसानी से ज्ञान हो जाएगा 1. प्रज्ञापनासूत्र भा. 5 (प्रमेयबोधिनी टोकासहित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org