________________ तेईसवाँ कर्मपद [67 हैं ? इस प्रश्न का समाधान यहाँ किया गया है। नीचे लिखे रेखाचित्र से आसानी से समझ में आ जाएगा--- कर्मप्रकृति का नाम जघन्य बन्धस्थिति उत्कृष्टबन्धस्थिति ज्ञानावरणीय, निद्रापंचक पल्योपम का असंख्यवाँ भाग 25 सागरोपम के भाग की कम 25 सागरोपम के भाग की शेषकर्म एकेन्द्रिय के समान बन्ध प्रबन्ध जानना मिथ्यात्वमोहनीय पल्योपम के असंख्यातवें भाग पूर्ण पच्चीस सागरोपम की कम 25 सागरोपम की तिर्यञ्चायु-मनुष्यायु अन्तर्मुहूर्त 4 पूर्व अधिक पूर्वकोटि वर्ष की नाम-गोत्र अन्तरायादि एकेन्द्रिय के समान एकेन्द्रियवत्' एकेन्द्रियों की अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीवों के बंधकाल की विशेषता-एक विशेषता यह है कि द्वीन्द्रिय जीवों का बन्धकाल एकेन्द्रिय जीवों से पच्चीस गुणा अधिक होता है / जैसे-एकेन्द्रिय के ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य बन्धकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम के भाग का है, जबकि द्वीन्द्रिय का जघन्य वन्धकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 25 सागरोपम के भाग का है / इस प्रकार पच्चीस गुणा अधिक करके पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध एकेन्द्रिय जीव नहीं करते, द्वीन्द्रिय जीव भी उनका वन्ध नहीं करते। इस प्रकार जिस कर्म की जो-जो उत्कृष्ट स्थिति पहले कही गई है, उस स्थिति का मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोडाकोडी के साथ भाग करने पर जो संख्या लब्ध होती है, उसे पच्चीस से गुणा करने पर जो राशि पाए उसमें से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम करने पर द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति का परिमाण आ जाता है। यदि उसमें से पल्योपम का असंख्यातवाँ म न करें तो उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण या जाता है। उदाहरणार्थ-ज्ञानावरणीय पंचक आदि के सागरोपम के भाग का पच्चीस से गुणा किया जाय तो पच्चीस सागरोपम के , भाग हुए। अर्थात्-उनका उत्कृष्ट बन्धकाल पूरे पच्चीस सागरोपम के भाग हुए / यदि पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम कर दिया जाए तो उनका जघन्य स्थिति बन्धकाल हुआ। त्रीन्द्रियजीवों में कर्मप्रकृतियों की स्थिति-बन्धप्ररूपणा 1721. तेइंदिया णं भंते ! जीवा पाणावरणिज्जस्स कि बंधंति ? गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमपण्णासाए तिणि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति / एवं जस्स जइ भागा ते तस्स सागरोवमपण्णासाए सह भाणियव्वा / 1. पण्णवणासुत्तं भाग 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 379 2. प्रज्ञापनासूत्र भा. 5 (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. 419-420 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org