________________ चौवीसवाँ कर्मबन्धपद [81 विहबंधगा य छव्यिहबंधगा य 5 प्रहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधए य छविहबंधए 6 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगे य छम्विहबंधगा य 7 अहवा सत्तविहबंधगा य अटुविहबंधगा य छविहबंधए य 8 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य छचिहबंधगा य , एवं एते णव भंगा। सेसा वाणमंतराइया जाव वेमाणिया जहा रइया सत्तविहादिबंधगा भणिया (सु. 1758 [1]) तहा भाणियन्वा। [1761 प्र. भगवन् ! (बहुत-से) मनुष्य ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधते हैं ? [1761 उ.] गौतम ! 1. सभी मनुष्य सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, 2. अथवा बहुतसे मनुष्य सात के बन्धक और कोई एक मनुष्य पाठ का बन्धक होता है, 3. अथवा बहुत-से सात के तथा पाठ के बन्धक होते हैं, 4, अथवा बहत-से मनुष्य सात के और कोई एक मनुष्य छह का बन्धक होता है, 5. बहुत-से मनुष्य सात के और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं, 6. अथवा बहुत-से सात के बन्धक होते हैं तथा एक पाठ का एवं कोई एक छह का बन्धक होता है, 7. अथवा बहुत-से सात के बन्धक कोई एक पाठ का बन्धक और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं, 8. अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से पाठ के और एक छह का बन्धक होता है, 6. अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से पाठ के और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं / इस प्रकार ये कुल नौ भंग होते हैं। शेष वाणव्यन्तरादि (से लेकर) यावत् वैमानिक-पर्यन्त जैसे (सू. 1758-1 में) नै रयिक सात आदि कर्म-प्रकृतियों के बन्धक कहे हैं, उसी प्रकार कहने चाहिए। दर्शनावरणीयकर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण 1762. एवं जहा णाणावरणं बंधमाणा जाहिं भणिया सणावरणं पि बंधमाणा ताहि जीवादीया एगत्त-पोहत्तेहि भाणियम्वा / [1762] जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का कथन किया, उसी प्रकार दर्शनावरणीयकर्म को बांधते हुए जीव आदि के विषय में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से उन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का कथन करना चाहिए। विवेचन ---ज्ञान-दर्शनावरणीय कर्म-बन्ध के साथ अन्य कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का निरूपण (1) समुच्चयजीव--सात, आठ या छह कर्मप्रकृतियों के बन्धक कैसे ? --~-जीव जब ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता है, तब यदि प्रायुष्यकर्म का बन्ध न करे तो सात प्रकृतियाँ, यदि आयुष्य-बन्ध करे तो पाठ कर्मप्रकृतियां बांधता है और जब मोहनीय और आयु दोनों का बन्ध नहीं करता, तब छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। ऐसे जीव सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानवर्ती हैं, जो मोहनीय और आयु को छोड़कर शेष छह कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं। केवल एक सातावेदनीय कर्मप्रकृति बांधने वाला ग्यारहवें (उपशान्त-मोहनीय), बारहवें (क्षीण-मोहनीय) और तेरहवें (सयोगी-केवली) गुणस्थानवर्ती जीव होता है / उस समय वे दो समय की स्थितिवाला सातावेदनीयकर्म बांधते हैं / उनके साम्परायिक बन्ध नहीं होता, क्योंकि उपशान्तकषाय प्रादि जीवों के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का विच्छेद सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान के चरम समय में ही हो जाता है। (2) नारकादि जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org