________________ चौवीसवां कर्मबन्धपद] 1765. [1] अवसेसा णारगादीया जाव वेमाणिया जानो णाणावरणं बंधमाणा बंधति ताहि भाणियव्वा। [1765-1] शेष नारकादि से वैमानिक पर्यन्त ज्ञानावरणीय को बांधते हुए जितनी प्रकृतियों को बांधते हैं, उतनी का बन्ध यहाँ भी कहना चाहिए / [2] णवरं मनसा णं भंते ! वेदणिज्जं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सम्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य प्रविहबंधए 2 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगे य 4 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगा य 5 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छन्विहबंधए य 6 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छविहबंधगा य 7 प्रहवा सत्तविहबंधया य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधए य 8 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छन्विहबंधगा य 6, एवं णव भंगा। __ [1765-2] विशेष यह है कि भगवन् ! मनुष्य वेदनीयकर्म को बाँधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधते हैं। गौतम ! सभी मनुष्य सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं 1, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक होता है 2, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक और बहत अष्टविधबन्धक होते हैं 3, अथवा बहत सप्तविधबन्धक, बहत एकविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है 4, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत षड्विधबन्धक 5, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, एक अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक, होता है 6, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, एक अष्टविधबन्धक और बहुत षड्विध बन्धक होते हैं 7, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है 8, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक ,बहुत अष्टविधबन्धक और बहुत षड्विधबन्धक होते हैं 6 / इस प्रकार नौ भंग होते हैं / मोहनीय आदि कर्मों के बन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण 1766. मोहणिज्ज बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधा ? गोयमा ! जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। जीवेगिदिया सत्तविहबंधगा वि अढविहबंधगा वि / [1766 प्र.] भगवन् ! मोहनीय कर्म बाँधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? [1766 उ.] गौतम ! सामान्य जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना चाहिए। जीव और एकेन्द्रिय सप्तविधबन्धक भी और अष्टविधबन्धक भी होते हैं। 1767. [1] जीवे णं भंते ! पाउअंकम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीयो बंध? गोयमा! णियमा अट्ठ / एवं रइए जाव वेमाणिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org