________________ [प्रज्ञापनासून [1721 प्र.] भगवन् ! श्रीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बंध करते हैं ? [1721 उ.] गौतम ! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम के 3 भाग का बंध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं / इस प्रकार जिसके जितने भाग हैं, वे उनके पचास सागरोपम के साथ कहने चाहिए। 1722. तेइंदिया णं० मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमपण्णासं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उपकोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति। [1722 प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीव मिथ्यात्व-वेदनीय कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं। . [1722 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम का और उत्कृष्ट पूरे पचास सागरोपम का बन्ध करते हैं। 1723. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडि सोलसहि राइंदिरहि राइंदियतिभागेण य अहियं बंधति / एवं मणुस्साउयस्स वि। [1723] तिर्यञ्चायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट सोलह रात्रि-दिवस तथा रात्रिदिवस के तीसरे भाग अधिक करोड़ पूर्व का बन्धकाल है। इसी प्रकार मनुष्यायु का भी बन्धकाल है। 1724. सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स। [1724] शेष यावत् अन्तराय तक का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल के समान जानना चाहिए। विवेचन- त्रीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की विशेषता-त्रीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की प्ररूपणा भी इसी प्रकार की है, किन्तु उनका बन्धस्थितिकाल एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा 50 गुणा अधिक होता है।' चतुरिन्द्रिय जोवों की कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपरणा 1725. चरिदिया णं भंते ! जोवा णाणावरणिज्जस्स कि बंधति ? गोयमा! जहण्णणं सागरोवमसयस्स तिणि सत्तभागे पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / एवं जस्स जइ भागा ते तस्स सागरोवमसतेण सह भाणियस्वा। [1725 प्र. भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बंध करते हैं ? [1725 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सौ सागरोपम के भागका ओर उत्कृष्ट पूरे सो सागरोपम के ॐ भाग का बन्ध करते हैं। 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1, पृ. 380 (ख) प्रज्ञापनासूत्र भा. 5 (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. 420 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org