________________ 78] (प्रज्ञापनासूत्र [1752 प्र.] भगवन् ! किस प्रकार की मनुष्य-स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले आयुष्यकर्म को बांधती है ? [1752 उ.] गौतम ! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हो अथवा कर्मभूमिजा के समान हो यावत् श्रुत में उपयोग वाली हो, सम्यग्दृष्टि हो, शुक्ललेश्यावाली हो, तत्प्रायोग्य विशुद्ध होते हुए परिणाम वाली हो, हे गौतम ! इस प्रकार की मनुष्य-स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधती है। 1753. अंतराइयं जहा णाणावरणिज्ज (1745-47) / [बीओ उद्देसओ समत्तो // पण्णवणाए भगवतीए तेवीसइमं कम्मे त्ति पदं समत्तं // [1753] उत्कृष्ट स्थिति वाले अन्तरायकर्म के बंध के विषय में (सू. 1745-47 में उक्त) ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना चाहिए। विवेचन--निष्कर्ष-आयकर्म को छोड़कर शेष सातों उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों को पूर्वोक्त विशेषता वाले नारक, तिर्यञ्च, तिर्यञ्चिनी, मनुष्य, मानुषी, देव या देवी बांधती है / उत्कृष्ट स्थिति वाले आयुष्यकर्म को तिर्यञ्च, मनुष्य और मानुषी बंधती है, किन्तु नारक, तिर्यञ्चिनी, देव और देवी नहीं बांधती, क्योंकि इन चारों के उत्कृष्ट प्रायुकर्म का बन्ध नहीं होता / ' कठिन शब्दार्थ-कम्मभूमिगलिभागी- जो कर्मभूमि में जन्मे हुए के समान हों / अर्थात् कर्मभमिजा गभिणी तिर्यञ्चिनी का अपहरण करके किसी ने यौगलिक क्षेत्र में रख दिया हो और उससे जो जन्मा हो ऐसा तिर्यञ्च / सागारे-साकारोपयोग वाला / सुतोवउत्ते–श्रुत (शास्त्र) में उपयोग वाला / सुक्कलेस्से—शुक्ललेश्यी / तप्पाउग्गविसुज्झमाण-परिणामे-उसके योग्य विशुद्ध परिणाम वाला हो। // दूसरा उद्देशक समाप्त। // प्रज्ञापना भगवती का तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद सम्पूर्ण / / 1. (क) पण्णवणासुतं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 383-384 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधनीटीका) भा. 5, पृ. 451 से 456 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org