________________ तेईसवाँ कर्मपद होता है / तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में उपशमक और क्षपक दोनों का जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है। अतएव दोनों का स्थितिबन्ध का काल समान होने से कहा गया है-उपशमक अथवा क्षपक दोनों में से कोई एक / यद्यपि उपशमक और क्षपक दोनों का स्थितिबन्धकाल अन्तर्मुहर्त्तप्रमाण है, तथापि दोनों के अन्तर्मुहूर्त के प्रमाण में अन्तर होता है / क्षपक को अपेक्षा उपशमक का बन्धकाल दुगुना समझना चाहिए। उदाहरणार्थ-दसवें गुणस्थान वाले क्षपक को जितने काल का ज्ञानावरणीय कर्म का स्थितिबन्ध होता है, उसकी अपेक्षा श्रेणी चढ़ते हुए उपशमक को दुगुने काल का स्थितिबन्ध होता है और फिर वह श्रेणी से गिरते हुए दसवें गुणस्थान में आता है, तो श्रेणी चढ़ते जीव की अपेक्षा भी दुगुना स्थितिबन्ध काल होता है / फिर भी उसका काल होता है- अन्तर्मुहूर्त हो / इस प्रकार वेदनीयकर्म के साम्परायिकबन्ध की प्ररूपणा करते समय क्षपक का जघन्य स्थितिबन्ध 12 मुहूर्त का और उपशमक का 24 मुहूर्त का कहा है / नाम और गोत्रकर्म का क्षपक जीव आठ मुहूर्त का स्थितिबन्ध करता है, जबकि उपशमक 16 मुहर्त करता है। किन्तु उपशमक एवं क्षपक जीव का जघन्यबन्ध शेष सब बन्धों की अपेक्षा सर्वजघन्यबन्ध समझना चाहिए। इसीलिए कहा गया है-उपशमक एवं क्षपक जीव, जो सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में हो वही ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जघन्य स्थितिबन्धक है।' मोदनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक-बादरसम्पराय से यक्त उपशमक या क्षपक जीव मोहनीय कर्म की स्थिति का बन्धक होता है। प्रायुकर्म को जघन्य स्थिति का बन्धक कौन और क्यों ?-जो जीव असंक्षेप्य-अद्धाप्रविष्ट होता है, उसकी अायु सर्वनिरुद्ध होती है। उसका आयुष्य पाठ प्राकर्ष प्रमाण सबसे बड़ा काल होता है, प्राय के बन्ध होते ही वह आयुष्य समाप्त हो जाता है। अतः असंक्षेप्याद्धाप्रविष्ट जीव आयुष्यबन्ध काल के चरम समय में अर्थात् एक आकर्षप्रमाण अष्टम भाग में सर्वजघन्य स्थिति को बांधता है। वह स्थिति शरीर-पर्याप्ति और इन्द्रिय-पर्याप्ति को सम्पन्न करने में समर्थ और उच्छ्वासपर्याप्ति को निष्पन्न करने में असमर्थ होती है / यहाँ असंक्षेप्याद्धा, सर्वनिरुद्ध और चरमकाल आदि कुछ पारिभाषिक शब्द हैं, उनके लक्षण इस प्रकार हैं-असंक्षेप्याद्धा-जिसका त्रिभाग आदि प्रकार से संक्षेप न हो सके ऐसा अद्धा-काल असंक्षेप्याद्धा कहलाता है / ऐसे जीव का आयुष्य सर्वनिरुद्ध होता है / अर्थात् उपक्रम के कारणों द्वारा आयुष्य अतिसंक्षिप्त किया हुआ होता है। ऐसा आयुष्य आयुष्यबन्ध के समय तक ही सीमित होता है, आगे नहीं। चरमकाल समय-इस शब्द से सूक्ष्म अंश का ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु पूर्वोक्तकाल ही समझना चाहिए, क्योंकि उससे कम काल में आयु का बन्ध होना सम्भव नहीं। कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के बन्धकों को प्ररूपणा 1745. उक्कोसकालठितीयं णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं कि गैरइप्रो बंधति तिरिक्ख जोणिसोबंधति तिरिक्खजोणिणी बंधति मणुस्सो बंधति मणुस्सी बंधति देवो बंधति देवी बंधति ? गोयमा ! गेरइयो वि बंधति जाव देवी वि बंधति / 1. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 437 2. वही, भा. 5, पृ. 440 3. वही, भा. 5, पृ. 440-441 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org