Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तेईसवाँ कर्मपद] . 1738. चउण्ह वि पाउप्राणं जा ओहिया ठिती भणिया तं बंधति / [1738] चार प्रकार के आयुष्य (नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्याय और देवायु) कर्म की जो सामान्य (प्रोधिक) स्थिति कही गई है, उसी स्थिति का वे (संज्ञीपंचेन्द्रिय) बन्ध करते हैं / 1736. [1] पाहारगसरीरस्स तित्थगरणामए य जहणणं अंतोसागरोवमकोडाकोडोप्रो, उक्कोसेण वि अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ बंधंति / [1739-1] वे अाहारकशरीर और तीर्थकरनामकर्म का बन्ध जघन्यत: अन्तःकोटकोटि सागरोपम का करते हैं और उत्कृष्टतः भी उतने ही काल का बन्ध करते हैं / [2] पुरिसवेदस्स जहण्णेणं अट्ठ संवच्छराई, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीमो; दस य वाससयाई अबाहा। [1736-2] पुरुषवेदकर्म का बन्ध वे जघन्य आठ वर्ष का और उत्कृष्ट दशकोटाकोटि सागरोपम का करते हैं। उनका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है, इत्यादि पर्ववत। [3] जसोकित्तिणामए उच्चागोयस्स य एवं चैव / णवरं जहणेणं अट्ठ मुहत्ता / [1736-3] यशःकोतिनामकर्म और उच्चगोत्र का बन्ध भी इसी प्रकार (पुरुषवेदवत्) जानना चाहिए / विशेष यह है कि संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों का जघन्य स्थितिबन्ध (काल) आठ मुहूर्त का है। 1740. अंतराइयस्स जहा णाणावरणिज्जस्स / [1740] अन्तरायकर्म का बन्धकाल ज्ञानावरणीयकर्म के (बन्धकाल के) समान है। 1741. सेसएसु सम्वेसु ठाणेसु संघयणेसु संठाणेसु वण्णेसु गंधेसु य जहण्णेणं अंतीसागरोवमकोडाकोडोमो, उक्कोसेणं जा जस्स प्रोहिया ठिती भणिया तं बंधति, गवरं इम णाणा तं-अबाहा अबाहूणिया ण वुच्चति / एवं प्राणुपुवीए सध्वेसि जाव अंतराइयस्स ताव भाणियन्वं / [1741] शेष सभी स्थानों में तथा संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध-नामकर्मों में बन्ध का जघन्य काल अन्तःकोटाकोटि सागरोपम का है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का काल, जो इनकी सामान्य स्थिति कही है, वही कहना चाहिए / विशेष अन्तर यह है कि इनका 'अबाधाकाल' और अबाधाकालन्यून (कर्मनिषेककाल) नहीं कहा जाता। इसी प्रकार अनुक्रम से सभी कर्मों का यावत् अन्तरायकर्म तक का स्थितिबन्धकाल कहना चाहिए। विवेचन -कुछ स्पष्टीकरण-संज्ञीपंचेन्द्रिय बन्धक की अपेक्षा से ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जो जघन्य स्थितिबन्धकाल कहा गया है, वह क्षपक जीव को उस समय होता है, जब उन कर्मप्रकृतियों के बन्ध का चरम समय हो / निद्रापंचक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, कषाय-द्वादश आदि का बन्ध क्षपण से पहले होता है, अतएव उनका जघन्य और उत्कृष्ट बन्ध भी अन्तःकोटाकोटि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org