Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [71 तेईसवाँ कर्मपद] [5] वेउब्वियसरीरणामए पुच्छा। गोयमा ! जहणणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं दो पडिपुण्णे बंधंति / [1731-5 प्र.] भगवन् ! (असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव) वैक्रियशरीरनामकर्म का बन्ध कितने काल का करते हैं ? [1731-5 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के भाग का और उत्कृष्ट पूरे सहस्र सागरोपम के का करते हैं / 1732. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-आहारगसरीरणामए तित्थगरणामए य ण किचि बंधति / [1732] (असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव) सम्यक्त्वमोहनीय, सम्यमिथ्यात्वमोहनीय, आहारकशरीरनामकर्म और तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध करते ही नहीं हैं। 1733. अवसिठं जहा बेइंदियाणं / णवरं जस्स जत्तिया भागा तस्स ते सागरोवमसहस्सेणं सह भाणियव्वा / सव्वेसि प्राणुपुन्वीए जाव अंतराइयस्स / [1733] शेष कर्मप्रकृतियों का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के कथन के समान जानना / विशेष यह है कि जिसके जितने भाग हैं, वे सहस्र सागरोपम के साथ कहने चाहिए। इसी प्रकार अनुक्रम से यावत् अन्त रायकर्म तक सभी कर्मप्रकृतियों का यथायोग्य (बन्धकाल) कहना चाहिए। विवेचन-द्वीन्द्रियों के समान पालापक, किन्तु विशेष अन्तर भी-द्वीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल से असंज्ञीपंचेन्द्रियों के प्रकरण में विशेषता यही है कि यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल को सहस्र सागरोपम से गुणित कहना चाहिए। जिस कर्म का जितना भाग है, उसका उतना ही भाग यहाँ सहस्र सागरोपम से गुणित कहना चाहिए।' संजीपंचेन्द्रिय जीवों में कर्म-प्रकृतियों के स्थिति-बन्ध का निरूपरण 1734. सण्णी णं भंते ! जीवा पंचेंदिया णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडोलो, तिणि य वाससहस्साई अबाहा। [1734 प्र.] भगवन् ! संज्ञीपचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1734 उ.] गौतम ! वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम (काल का) बन्ध करते हैं। इनका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। (उत्कृष्टकर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर इनका कर्मनिषककाल है 1) 1735. [1] सण्णी णं भंते ! पंचेंदिया णिहापंचगस्स कि बंधंति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीनो; उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीमो, तिणि य वाससहस्साइं अबाहा। 1. प्रज्ञापनासूत्र भा. 5, पृ. 426 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org