________________ ।प्रज्ञापनासूत्र 1730. [1] गेरइयाउअस्स जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तम्भइयाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुव्वकोडितिभागभइयं बंधंति / [1730-1] वे नरकायुष्यकर्म का (बन्ध) जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का बन्ध करते हैं / [2] एवं तिरिक्खजोणियाउअस्स वि / णवरं जहण्णणं अंतोमुहूत्तं / [1730-2] इसी प्रकार तिर्यञ्चायु का भी उत्कृष्ट बन्ध पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का, किन्तु जघन्य अन्तर्मुहूर्त का करते हैं। [3] एवं मणुस्साउअस्स वि / [1730-3] इसी प्रकार मनुष्यायु के (बन्ध के) विषय में समझना चाहिए / [4] देवाउप्रस्स जहा रइयाउअस्स / [1730-4] देवायु का बन्ध नरकायु के समान समझना चाहिए। 1731. [1] असण्णी णं भंते ! जीवा पंचेंदिया णिरयगतिणामए कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलिअोवमस्स असंखेज्जहभागेणं ऊणाए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे / [1731-1 प्र.] भगवन् ! असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नरकगतिनामकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1631-1 उ.] गौतम ! वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम (काल) का भाग और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का भाग बांधते हैं। [2] एवं तिरियगतीए वि। [1731-2] इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिनामकर्म के बंध के विषय में समझना चाहिए। [3] मणुयगतिणामए वि एवं चेव। णवरं जहणणं सागरोवमसहस्सस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1731-3] मनुष्यगतिनामकर्म के बन्ध के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि इसका जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम के " भाग और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम के " भाग का करते हैं / [4] एवं देवगतिणामए वि / णवरं जहण्णणं सागरोवमसहस्सस्स एगं सत्तभागं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं / [1731-4] इसी प्रकार देवगतिनामकर्म के बन्ध के विषय में समझना। किन्तु विशेषता यह है कि इसका जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के भाग का और उत्कृष्ट पूरे उसी (सहस्र सागरोपम) के ' भाग का करते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org