________________ 74] [प्रज्ञापनासूत्र सागरोपम का होता है, जो अत्यन्त संक्लेशयुक्त मिथ्यादृष्टि के समझना चाहिए। चारों प्रकार के आयुष्यकर्म का उत्कृष्ट बन्ध उन-उनके बन्धकों में जो अतिविशुद्ध होते हैं, उनको होता है / ' कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धक की प्ररूपणा 1742. गाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जहण्णठितिबंधए के ? गोयमा ! अण्णयरे सुहमसंपराए उवसामए वा खवए वा, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जहण्णठितिबंधए, तन्वइरित्ते प्रजहण्णे / एवं एतेणं अभिलावेणं मोहाऽऽउअवज्जाणं सेसकम्माणं भाणियव्यं। [1742 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक (बांधने वाला) कौन है ? [1742 उ.] गौतम ! वह अन्यतर (कोई एक) सूक्ष्मसम्पराय, उपशामक (उपशम श्रेणी वाला) या क्षपक (क्षपक श्रेणी वाला) होता है / हे गौतम ! यही ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य स्थितिबन्धक होता है, उससे अतिरिक्ति अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। इस प्रकार इस अभिलाप से मोहनीय और प्रायुकर्म को छोड़ कर शेष कर्मों के विषय में कहना चाहिए। 1743. मोहणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जहण्णठितिबंधए के ? गोयमा ! अण्णयरे बायरसंपराए उवसामए वा खवए वा, एस गं गोयमा ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जहण्णठितिबंधए, तम्वतिरित्ते अजहण्णे। [1743 प्र] भगवन् ! मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक कौन है ? 1743 उ.] गौतम ! वह अन्यतर बादरसम्पराय, उपशामक अथवा क्षपक होता है। हे गौतम ! यह मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक होता है, उससे भिन्न अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। 1744. पाउयस्स णं भंते ! कम्मस्स जहण्णठितिबंधए के ? गोयमा ! जे णं जीवे असंखेपद्धप्पविट्ठे सव्वणिरुद्ध से आउए, सेसे सव्वमहंतीए प्राउप्रबंधखाए, तोसे णं आउप्रबंधद्धाए चरिमकालसमयंसि सव्वजहणियं ठिई पज्जत्तापज्जत्तियं णिवत्तेति / एस णं गोयमा ! आउयकम्मस्स जहण्णठितिबंधए, तब्वइरित्ते अजहण्णे / [1744 प्र.] भगवन् ! आयुष्यकर्म का जघन्यस्थिति-बन्धक कौन है ? [1744 उ.] गौतम ! जो जीव असंक्षेप्य-प्रद्धाप्रविष्ट होता है, उसकी आयु सर्वनिरुद्ध (सबसे कम होती है। शेष सबसे बडे उस प्रायव्य-बन्धकाल के अन्तिम काल के सा जघन्य स्थिति को तथा पर्याप्ति-अपर्याप्ति को बांधता है। हे गौतम ! यही प्रायुष्यकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक होता है, उससे भिन्न अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। विवेचन-निष्कर्ष- मोहनीय और आयुकर्म को छोड़कर शेष पांच कर्मों की जघन्य स्थिति का बन्धक जीव सूक्ष्मसम्पराय अवस्था से युक्त उपशमक अथवा क्षपक दोनों में से कोई एक (अन्यतर) 1. प्रज्ञापनासूत्र भाग 5, (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. 433-434 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org