Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तेईसवा कर्मपद 1726. तिरिक्खजोणियाउअस्स कम्मस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडि दोहि मासेहि अहियं / एवं मणुस्साउअस्स वि / [1726] तिर्यञ्चायुकर्म का (बन्धकाल) जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट दो मास अधिक करोड़-पूर्व का है। इसी प्रकार मनुष्यायु का बन्धकाल भी जानना चाहिए। 1727. सेसं जहा बेइंदियाणं / गवरं मिच्छत्तवेयणिज्जस्स जहण्णणं सागरोवमसतं पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स। [1727] शेष यावत् अन्तराय तक द्वीन्द्रियजीवों के बन्धकाल के समान जानना चाहिए / विशेषता यह कि मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) का जघन्य पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सौ सागरोपम और उत्कृष्ट परिपूर्ण सौ सागरोपम का बन्ध करते हैं। शेष कथन अन्तराय कर्म तक द्वीन्द्रियों के समान है। विवेचन-चतुरिन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की विशेषता-उनका बन्धकाल एकेन्द्रियों की अपेक्षा सौ गुणा अधिक होता है।' असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवों को कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपरणा 1728. असण्णी णं भंते ! जीवा पंचेंदिया णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहणेणं सागरोवमसहस्सस्स तिण्णि सत्तभागे पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / एवं सो चेव गमो जहा बेइंदियाणं / णवरं सागरोवमसहस्सेण समं भाणियब्वा जस्स जति भाग ति। [1728 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म कितने काल का बांधते [1728 उ.] गौतम ! वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम के भाग काल का और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम के भाग (काल) का बन्ध करते हैं। इस प्रकार द्वीन्द्रियों के (बन्धकाल के) विषय में जो गम (आलापक) कहा है, वही यहाँ जानना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में जिस कर्म का जितना भाग हो, उसका उतना ही भाग सहस्रसागरोपम से गुणित कहना चाहिए / 1726. मिच्छत्तवेदणिज्जस्स जहण्णेणं सागरोवमसहस्सं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्फोसेणं तं चेव पडिपुण्णं / [1729] वे मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम का और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का (बन्ध करते हैं)। 1, (क) पण्णावणासुत्तं, भाग 1, पृ. 380 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग 5, पृ. 421 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org