Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ [प्रज्ञापनासूत्र द्वीन्द्रियजीवों में कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपणा 1715. बेइंदिया णं भंते ! जीवा जाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमपणुवीसाए तिणि सत्तभागा पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / [1715 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1715 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के में भाग (काल) का बन्ध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं / 1716. एवं णिद्दापंचगस्स वि। [1716] इसी प्रकार निद्रापंचक (निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि) की स्थिति के विषय में जानना चाहिए / 1717. एवं जहा एगिदियाणं भणियं तहा बेइंदियाण वि भाणियन्वं / णवरं सागरोवमपणुवीसाए सह भाणियन्वा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणा, सेसं तं वेव, जत्थ एगिदिया ण बंधति तत्थ एते वि ण बंधति / [1717] इसी प्रकार जैसे एकेन्द्रिय जीवों को बन्धस्थिति का कथन किया है, वैसे ही द्वीन्द्रिय जीवों की बंधस्थिति का कथन करना चाहिए। जहाँ (जिन प्रकृतियों को) एकेन्द्रिय नहीं बांधते, वहाँ (उन प्रकृतियों को) ये भी नहीं बांधते / 1718. बेइंदिया णं भंते ! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमपणुवीसं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति। [1718 प्र.भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1718 उ.] गौतम ! वे जधन्यत: पल्योपम के असंख्यातवे भाग कम पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्टतः वही परिपूर्ण बांधते हैं। 1716. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुथ्वकोडि चहि वासेहि अहियं बंधंति / एवं मणुयाउअस्स वि / [1616] द्वीन्द्रिय जीव तिर्यञ्चायु को जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्टतः चार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष का बांधते हैं / इसी प्रकार मनुष्यायु का कथन भी कर देना चाहिए / 1720. सेसं जहा एगिदियाणं जाव अंतराइयस्स / [1720] शेष यावत् अन्तरायकर्म तक एकेन्द्रियों के कथन के समान जानना चाहिए। विवेचन- द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का बन्ध कितने काल का करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org