________________ [प्रज्ञापनासूत्र 1707. [2] असायावेयणिज्जस्स जहा णाणावरणिज्जस्स (सु. 1705) / [1707-2] असातावेदनीय का (जघन्य और उत्कृष्ट) बन्ध ज्ञानावरणीय के समान जानना चाहिए। 1708. [1] एगिदिया णं भंते ! जीवा सम्मत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधंति ? गोयमा! पत्थि किचि बंधति / (1708-1 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव सम्यक्त्ववेदनीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [1708-1 उ.] गौतम ! वे किसी भी काल का बंध नहीं करते-बन्ध करते ही नहीं हैं / [2] एगिदिया णं भंते ! जोवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधंति ? गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1708-2 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [1708-2 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम काल का बांधते हैं और उत्कृष्ट एक परिपूर्ण सागरोपम का बांधते हैं / [3] एगिदिया णं भंते ! सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जस्स किं बंधंति ? गोयमा ! णस्थि किचि बंधति / [1708-3 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव सम्यमिथ्यात्ववेदनीय कितने काल तक का बांधते हैं? [1708-3 उ.] गौतम ! वे किसी काल का नहीं बांधते। [4] एगिदिया णं भंते ! कसायबारसगस्स कि बंधति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागे पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / [1708-4 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कषायद्वादशक का कितने काल का बन्ध करते हैं। [1708-4 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं / [5] एवं कोहसंजलणाए वि जाव लोभसंजलणाए वि / [1708-5] इसी प्रकार यावत् संज्वलन क्रोध से लेकर यावत् संज्वलन लोभ तक बांधते हैं। [6] इथिवेयस्स जहा सायावेयणिज्जस्स (सु. 1707 [1]) / [1708-6] स्त्रीवेद का बन्धकाल सातावेदनीय (सू. 1707-1 में उक्त) के बन्धकाल के समान जानना। [7] एगिदिया पुरिसवेवस्स कम्मस्स जहण्णणं सागरोवमस्स एक्कं सत्तभागं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org