________________ तेईसवाँ कर्मपद] [1708-7] एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पुरुषवेदकर्म का पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का : भाग बांधते हैं और उत्कृष्टतः वही भाग पूरा बांधते हैं / [8] एगिदिया णपुसगवेदस्स कम्मस्स जहणणं सागरोवमस्स दो सत्तभागे पलियोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / [1708-8] एकेन्द्रिय जीव नपुंसकवेदकर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग बांधते हैं और उत्कृष्ट वही भाग परिपूर्ण बाँधते हैं / [6] हास-रतीए जहा पुरिसवेयस्स (सु. 1708 [7]) / [1708-6] हास्य और रति का बन्धकाल पुरुषवेद (सू. 1708-7 में उक्त) के समान जानना। [10] अरति-भय-सोग-दुगुछाए जहा गपुसगवेयस्स (सु. 1708 [8]) / [1708-10] अरति, भय, शोक और जुगुप्सा का बन्धकाल नपुसकवेद के समान जानना चाहिए। 1706. रइयाउन- देवाउप्र-णिरयगतिणाम- देवगतिणाम- वेउब्वियसरीरणाम- आहारग सरीरणाम-णेरइयाणुपुविवणाम-देवाणुपुषिणाम-तित्थगरणाम एयाणि पयाणि ण बंधति।। [1706] नरकायु, देवायु, नरकगतिनामकर्म, देवगतिनामकर्म, वैक्रियशरीरनामकर्म, पाहारकशरीरनामकर्म, नरकानुपूर्वी नामकर्म, देवानुपूर्वीनामकर्म, तीर्थकरनामकर्म, इन नौ पदों को एकेन्द्रिय जीव नहीं वांधते / 17010. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहणेणं अंतोमुहत्तं, उपकोसेणं पुन्यकोडी सहि वाससहस्सेहि वाससहस्सतिभागेण य अहियं बंधति / एवं मणुस्साउअस्स वि। [1710] एकेन्द्रिय जीव तिर्यञ्चायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का, उत्कृष्ट सात हजार तथा एक हजार वर्ष का तृतीय भाग अधिक करोड पूर्व का बन्ध करते हैं। मनुष्यायु का बन्ध भी इसी प्रकार समझना चाहिए। 1711. [1] तिरियगतिणामए जहा गपुसगवेदस्स (सु. 1708 [8]) / मणुयगतिणामए जहा सातावेदणिज्जस्स [सु. 1707 [1]) / [1711-1] तिर्यञ्चगतिनामकर्म का बन्धकाल (सू. 1708-8 में उक्त) नपुंसकवेद के समान है तथा मनुष्यगतिनामकर्म का बन्धकाल (सू. 1707-1 में उन) सातावेदनीय के समान है / / [2] एगिदियजाइणामए पंचेंदियजातिणामए य जहा णपुसगवेदस्स / बेइंदिय-तेइंदियजातिणामए जहण्णणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति / चरिदियनामए वि जहणेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलिप्रोवमस्स प्रसंखिज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org