________________ [प्रज्ञापनासूत्र स्थिति--ज्ञानावरणीय प्रादि पाठ कर्मों और उनके भेद-प्रभेद सहित सभी कर्मों के अधिकतम और न्यूनतम समय तक आत्मा के साथ रहने के काल को स्थिति कहते हैं। इसे ही कर्मसाहित्य में स्थितिबन्ध कहा जाता है / कर्म को उत्कृष्ट स्थिति को कर्मरूपतावस्थानरूप स्थिति कहते हैं / अबाधाकाल-कर्म बंधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नहीं कर देते, वे कुछ समय तक ऐसे ही पड़े रहते हैं। अतः कर्म बंधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार के फल न देने की (फलहीन) अवस्था को अबाधाकाल कहते हैं। निषेककाल-बन्धसमय से लेकर अबाधाकाल पूर्ण होने तक जीव को वह बद्ध कर्म कोई बाधा नहीं पहुँचाता, क्योंकि इस काल में उसके कर्मदलिकों का निषेक नहीं होता, अतः कर्म की उत्कृष्ट स्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर जितने काल की उत्कृष्ट स्थिति रहती है, वह उसके कर्मनिषेक का (कर्मदलिक-निषेकरूप) काल अर्थात्-अनुभवयोग्यस्थिति का काल कहते हैं / पृष्ठ 57 से 61 पर दिये रेखाचित्र में प्रत्येक कर्म की जघन्य-उत्कृष्टस्थिति एवं अबाधाकाल व निषेककाल का अंकन है। एकेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपरणा 1705. एगिदिया णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहणणं सागरोवमस्स तिणि सत्तभागे पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / 61705 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [1705 उ.] गौतम! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 3 भाग का बन्ध करते हैं और उत्कृष्टतः पूरे सागरोपम के भाग का बन्ध करते हैं / 1706. एवं णिहापंचकस्स वि दंसणचउक्कस्स वि। [1706] इसी प्रकार निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क का (जघन्य और उत्कृष्ट) बन्ध भी ज्ञानावरणीयपंचक के समान जानना चाहिए। 1707. [1] एगिदिया णं भंते ! जीवा सातावेयणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहणणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1707-1 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [1707-1 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग का और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के " भाग का बन्ध करते हैं / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टोका) भा. 5, पृ. 336-337 (ख) कर्मग्रन्थ भाग 1, पृष्ठ 64-65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org